http://images.indiainfo.com/web2images/religion.bhaskar.com/2010/06/14/images/pyara_3101_f.jpgधर्म हमें प्रेम, इंसानियत, समानता और भाईचारे का संदेश देता है। ईश्वर एक है और विभिन्न धर्म-पंथ उस तक पहुंचने के रास्ते हैं। एक भक्त के लिये उसका धर्म, अध्यात्म, ज्ञान सब कुछ प्रेम ही है। भक्त जानता है कि यह प्रेम सरल नहीं है, यह न तो खेत में पैदा हो सकता है और न ही हाट में मिलता है। प्रेम पाने के लिए इंसान को सबसे पहले अपने अहंकार को समाप्त करना ही कसौटी है।
जहां अहंकार खत्म होता है, वहीं से प्रेम शुरू होता है। आज की विषम परिस्थितियां केवल अहंकार के कारण ही खड़ी हैं। धर्म कोई भी क्यों न हो किन्तु एक सच्चा भक्त यही कहेगा कि- अहंकार छोड़ो और प्रेम से गले लग जाओ। धर्म के नाम पर एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करने वालों को प्रेम के मार्ग का पथिक यही कहेगा कि राम और रहीम एक ही हैं। जब हमें यह ज्ञान हो जाए कि इस संसार में एक ही ईश्वर सर्वव्याप्त है तो झगड़ा ही मिट जाएगा।
जब हम सबमें ईश्वर को ही देखेंगे तो फिर अहम् की भावना मिट जाएगी। एक भक्क्त इसी भावना को इस तरह व्यक्त करते हैं- जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नहिं। कहने का मतलब यह कि जब 'मैं' का भाव था तब तक हृदय में ईश्वर की अनुभूति नहीं हुई, जब हृदय में ईश्वर की अनुभूति हुई तो 'मैं' का भाव समाप्त हो गया। अब तो हर तरफ केवल ईश्वर ही दिखाई देता है।
"जीवन के पन्नो पर कुछ ऐसा लिखा जाये, जो सुबह शाम पवित्र पुस्तक सा पढ़ा जाये"
I'm an idealist. I don't know where I'm going, but I'm on my way. ~
DOSTI AISE HI HOTI H
विश्वास के कोमल धागों से है बनता, रिश्तो का संसार |
ज्ञान नहीं, धन नहीं, प्रेम है जीवन का आधार ||
जो प्रेम, स्वार्थ की सीमाओं से परे, करे, वो दोस्त |
खाली जीवन को, स्वर्णिम लम्हों से करे, हरे भरे, वो दोस्त ||
वो दोस्त, समझ हो जिसे, दोस्त की हर धड़कन की |
वो दोस्त, समझ हो जिसे, इस अटूट बन्धन की ||
यह तन नश्वर, जीवन नश्वर, है नश्वर यह संसार |
जो मिटे नहीं, रहे अमर सदा, वो है, दोस्ती – एक अमूल्य उपहार
ज्ञान नहीं, धन नहीं, प्रेम है जीवन का आधार ||
जो प्रेम, स्वार्थ की सीमाओं से परे, करे, वो दोस्त |
खाली जीवन को, स्वर्णिम लम्हों से करे, हरे भरे, वो दोस्त ||
वो दोस्त, समझ हो जिसे, दोस्त की हर धड़कन की |
वो दोस्त, समझ हो जिसे, इस अटूट बन्धन की ||
यह तन नश्वर, जीवन नश्वर, है नश्वर यह संसार |
जो मिटे नहीं, रहे अमर सदा, वो है, दोस्ती – एक अमूल्य उपहार
माना, तू अजनबी है और मैं भी, अजनबी हूं डरने की बात क्या है ज़रा मुस्कुरा तो दे
Aansoo Main Na Dhoondna Humein,Dil Main Hum Bas Jaayenge,Tamanna Ho Agar Milne Ki,To Band Aankhon Main Nazar Aayenge.Lamha Lamha Waqt Guzer Jaayenga,Chund Lamhoo Main Daaman Choot Jaayega,Aaj Waqt Hai Do Baatein Kar Lo Humse,Kal Kiya Pata Koun Apke Zindagi Main Aa Jayega.Paas Aakar Sabhi Door Chale Jaate Hain,Hum Akele The Akele Hi Reh Jaate Hain,Dil Ka Dard Kisse Dikhaaye,Marham Lagane Wale Hi Zakhm De Jaate Hain,Waqt To Humein Bhula Chuka Hai,Muqaddar Bhi Na Bhula De,Dosti Dil Se hum Isiliye Nahin Karte,Kyunke Darte Hain,Koi Phir Se Na Rula De,Zindagi Main Hamesha Naye Loug Milenge,Kahin Ziyada To Kahin Kam Milenge,Aitbaar Zara Soch Kar Karna,Mumkin Nahi Har Jagah Tumhe Hum Milenge.Khushbo Ki Tarah Aapke Paas Bikhar Jayenge,Sukon Ban kar Dil Me Utar Jayenge,Mehsoos Karne Ki Koshish To Kijiye,Door Hote Howe Bhi Pass Nazer Aayenge..!
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Monday, July 5, 2010
जहां प्रेम है वहीं शांति है
एक फूलों से भरी डाल ने अपने पड़ोस की टहनी से कहा आज का दिन तो बिलकुल नीरस लग रहा है।क्या तुम्हें भी ऐसा ही महसूस हो रहा है।
उस टहनी ने उत्तर दिया- यही बात मुझे भी महसूस हो रही है।
उसी समय उस टहनी पर एक तोता आ बैठा और उसके पास ही एक दूसरा तोता भी आ गया। पहले तोते ने कहा आज मेरी पत्नी मुझे छोड़कर चली। मैं भी उसे मनाने नहीं जाने वाला।
दूसरे तोते ने भी कहा- मेरी पत्नी भी चली गई, जो अब वापस नहीं आने वाली और मुझे भी उसकी परवाह नहीं। दोनों आपस में इस विषय पर जोर-जोर से बतियाने और शोर मचाने लगे। तभी दो मैनाएं आकाश में उड़ती हुई इन दोनों तोतों के पास आकर बैठ गई। शोर बंद हो गया और चारों और शांति हो गई। फिर वे चारों अपने जोड़े बनाकर उड़ गए।
फिर उस डाल ने टहनी से कहा- यह तो शोर का बवंडर सा था। टहनी बोली- इसे चाहे जो कहो, लेकिन अब तो सारा वातावरण शांत है। यदि ऊपरी हवा, शांत हो तो मेरा विश्वास है कि नीचे रहने वाले भी शांति बनाए रख सकते हैं। क्या तुम भी हवा के साथ झोंका लेकर मेरे पास न आओगी?
उस डाल ने कहा- ओह। यह तो शांति प्राप्त करने का अच्छा अवसर है। कहीं ऐसा न हो कि बसंत बीत जाए।
उसी समय हवा का एक झोंका आया और दोनों एक दूसरे के गले लग गए।
कथा का संकेत यह है कि जहां प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, वहां शांति खुद ही आ जाती है। वास्तव में प्रेम ऐसा विराट भाव है, जिससे दूरी, विवाद और शत्रुता का नामोनिशान मिट जाता है निकटता, भाईचारा और स्नेह की निराली त्रिवेणी बहने लगती है।
प्रेम बदल सकता है जीवन की दिशा
अगर अपने दम पर कोई कुछ परिवर्तन ला सकता है तो वह है प्रेम। प्रेम की शक्ति कुछ भी बदल सकती है। हमारे अवतारों ने, संतों-महात्माओं ने, विद्वानों ने प्रेम पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया है। केवल हिंदू धर्म ही नहीं, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध हर धर्म का एक ही संदेश है कि निष्काम प्रेम जीवन में होना ही चाहिए। इसमें बड़ी शक्ति है। यह जीवन की दिशा बदल सकता है। परमात्मा के निकट जाने का एक सबसे आसान रास्ता है प्रेम।
फकीरों की सोहबत में क्या मिलता है यह तो तय नहीं हो पाता है लेकिन कुछ चाहने की चाहत जरूर खत्म हो जाती है। सूफियाना अन्दाज में रहने वाले लोग दूसरों से उम्मीद छोड़ देते हैं। अपेक्षा रहित जीवन में प्रेम आसानी से जागता है। प्रेम में दूसरों को स्वयं अपने जैसा बनाने की मीठी ताकत होती है। प्रेम की प्रतिनिधि है फकीरी। अहमद खिजरविया नाम के फकीर बहुत अच्छे लेखक भी थे। रहते तो फौजियों के लिबास में थे लेकिन पूरी तरह प्रेम से लबालब थे। एक दफा उनके घर चोर ने सेंध लगा दी। चोर काफी देर तक ढूंढता रहा कुछ माल हाथ नहीं लगा। घर तो प्रेम से भरा था अहमद का मन भी पूरी तरह से प्रेम निमग्न था। चोर को वापस जाता देख उन्होंने रोका। कहा हम तुम्हे मोहब्बत तो दे ही सकते हैं बाकी तो घर खाली है। बैठो और बस एक काम करो सारी रात इबादत करो। फकीर जानते थे कि जिन्दगी का केन्द्र यदि ढूंढना हो तो प्रेम के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। जिनके जीवन के केन्द्र में प्रेम है ऊपर वाला उनकी परीधि पर दरबान बनकर खड़े रहने को तैयार होगा। दुनिया में जिन शब्दों का जमकर दुरुपयोग हुआ है उनमें से एक है प्रेम। इसके बहुत गलत मायने निकाले हैं लोगों ने। आइए देखें प्रेम कैसा आचरण करवाता है, यहीं हमें सही अर्थ पता चलेगा। चोर ने सारी रात इबादत की। सुबह किसी अमीर भक्त ने फकीर अहमद खिजरविया को कुछ दीनारें भेजी। फकीर ने दीनारे चोर को दी और कहा यह है तुम्हारी इबादत के एवज में कुबुल करो। चोर प्रेम की पकड़ में था। आंखों में आंसू आ गए और बोला, मैं उस खुदा को भूले बैठा था जो एक रात की इबादत में इतना दे देता है। चोर ने दीनारे नहीं ली और कह गया यहां प्रेम और पैसा दोनों मिले, पर अब प्रेम हासिल हो गया तो बाकी खुद ब खुद आ जाएगा। जिन्दगी में जब प्रेम का प्रवेश रुक जाता तो अशांति को आने की जगह मिल ही जाती है।
प्रेम पाना क्यों चाहता है हर इंसान ?
http://images.indiainfo.com/web2images/religion.bhaskar.com/2010/06/16/images/prem_ki_chah_310_f.jpg
प्रेम कैसे पैदा हो जाए............प्रेम, प्यार, स्नेह, मोहब्बत, लगाव, जुड़ाव, ममता ..... और भी न जाने कितने ही नामों से जाना जाता है इस कोमल मानवीय भाव को। लोगों ने प्रेम के जितने नाम रखें हैं, दुनिया में उतनी ही भ्रांतियां और धोके बढ़े हैं प्रेम को लेकर। जैसा कि तथा कथित प्रेम गुरुओं द्वारा कहा और बताया जाता है कि प्रेम पाना बड़ा कठिन है और इसे पाने के लिये आग का दरिया पार करना पड़ता है। ये बातें पहले से ही उलझे हुए इंसान को और भी अधिक उलझा देती हैं। जिसने वास्तव में प्रेम को जीया है, वह जानता है कि जिसे वह बाहर खोज रहा था वह तो उसी के भीतर मौजूद था।
हर इंसान प्रेम चाहता है, इसका कारण क्या है? इंसान भीतर से दु:खी हो तभी वह प्रेम की मांग करता है। इसके विपरीत यदि इंसान के अंदर हो तो वह बिना किसी स्वार्थ के ही हर किसी से प्रेम ही करेगा। वास्तव में प्रेम जो है अंदर के आनंद का ही प्रकाश है। तो जो आदमी भीतर आनंद से भरेगा उसके जीवन के चारों तरफ प्रेम विकीर्ण हो जाएगा। जो भी उसके पास आएगा उसे प्रेम के शीतल स्पर्श का अहसास अवश्य होगा। उस आनंद के लिए यदि यह कहा जाए कि प्रेम आनंद का प्रकाश है, तो आनंद आत्मबोध का अनुभव है, उसके पूर्व नहीं है। दुख है कि हम अपने को नहीं जानते, अपने को नहीं जानते इसलिए प्रेम मांगते हैं। अगर हम अपने को जानेंगे, आनंद होगा; आनंद होगा तो प्रेम हमसे चारों तरफ फैलेगा होगा।
प्रेम कैसे पैदा हो जाए............प्रेम, प्यार, स्नेह, मोहब्बत, लगाव, जुड़ाव, ममता ..... और भी न जाने कितने ही नामों से जाना जाता है इस कोमल मानवीय भाव को। लोगों ने प्रेम के जितने नाम रखें हैं, दुनिया में उतनी ही भ्रांतियां और धोके बढ़े हैं प्रेम को लेकर। जैसा कि तथा कथित प्रेम गुरुओं द्वारा कहा और बताया जाता है कि प्रेम पाना बड़ा कठिन है और इसे पाने के लिये आग का दरिया पार करना पड़ता है। ये बातें पहले से ही उलझे हुए इंसान को और भी अधिक उलझा देती हैं। जिसने वास्तव में प्रेम को जीया है, वह जानता है कि जिसे वह बाहर खोज रहा था वह तो उसी के भीतर मौजूद था।
हर इंसान प्रेम चाहता है, इसका कारण क्या है? इंसान भीतर से दु:खी हो तभी वह प्रेम की मांग करता है। इसके विपरीत यदि इंसान के अंदर हो तो वह बिना किसी स्वार्थ के ही हर किसी से प्रेम ही करेगा। वास्तव में प्रेम जो है अंदर के आनंद का ही प्रकाश है। तो जो आदमी भीतर आनंद से भरेगा उसके जीवन के चारों तरफ प्रेम विकीर्ण हो जाएगा। जो भी उसके पास आएगा उसे प्रेम के शीतल स्पर्श का अहसास अवश्य होगा। उस आनंद के लिए यदि यह कहा जाए कि प्रेम आनंद का प्रकाश है, तो आनंद आत्मबोध का अनुभव है, उसके पूर्व नहीं है। दुख है कि हम अपने को नहीं जानते, अपने को नहीं जानते इसलिए प्रेम मांगते हैं। अगर हम अपने को जानेंगे, आनंद होगा; आनंद होगा तो प्रेम हमसे चारों तरफ फैलेगा होगा।
प्रेम तो शक्ति है, उसे अपनी कमजोरी न बनने दें
हमारी कमजोरियां हमें न सिर्फ नुकसान पहुंचाती हैं बल्कि पतन भी करा देती हैं। श्रीराम के पिता राजा दशरथ की कमजोरी रानी कैकेयी थीं। राजा दशरथ ने कोप भवन में बैठी रानी को मनाने के लिए ऐसे वचन कहे थे- प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥ यानि कि हे प्रिये, मेरी प्रजा, कुटुम्बी, सारी सम्पत्ति, पुत्र और यहां तक कि मेरे प्राण ये सब तेरे अधीन हैं। तू जो चाहे मांग ले पर अब कोप त्याग, प्रसन्न होजा। यह राजा की कमजोरी थी। कैकेयी की कमजोरी उनकी दासी मंथरा थी जो कि स्वभाव से ही लालची थी। करइ बिचारू कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥ वह दुर्बुद्धि, नीच जाति वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रातोंरात बिगड़ जाए। श्रीराम के राजतिलक के पूर्व कैकेयी ने मंथरा की बात सुनी, उसके बहकावे में आ गईं और दशरथ से भरत के लिए राजतिलक तथा श्रीराम के लिए वनवास मांग लिया। अपनी कमजोरी के वश में आकर कैकेयी ने रामराज्य का निर्णय उलट दिया और तो और, दासी का सम्मान करते हुए कहा - करौ तोहि चख पूतरि आली। यदि मेरा यह काम होता है, मैं तुझे अपनी आंखों की पुतली बना लूंगी। मनुष्य अपनी ही कमजोरी के वश में होकर गलत निर्णय लेता है और इसी कमजोरी को पूजने लगता है।
श्रीरामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जब श्रीराम वनवास चले गए, दशरथ का निधन हो गया और भरत तथा शत्रुघ्न अपने ननिहाल से लौटे तब मंथरा पर शत्रुघ्न ने प्रहार किया था। हुमगि लात तकि कू बर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा ''उन्होंने जोर से कुबड़ पर एक लात जमा दी और वह मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।'' इसमें प्रतीक की बात यह छिपी है कि जो कमजोरी पर प्रहार करता है वह शत्रुघ्न कहलाता है और हमें अपने शत्रु का नाश ऐसे ही करना चाहिए। लोभ हमारा सबसे बड़ा शत्रु है, कमजोरी है इसे बक्शना नहीं चाहिए। वरना जो लोग कमजोरियों को ढोते हैं एक दिन वह कमजोरी उनको पटकनी दे देती है।
श्रीरामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जब श्रीराम वनवास चले गए, दशरथ का निधन हो गया और भरत तथा शत्रुघ्न अपने ननिहाल से लौटे तब मंथरा पर शत्रुघ्न ने प्रहार किया था। हुमगि लात तकि कू बर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा ''उन्होंने जोर से कुबड़ पर एक लात जमा दी और वह मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।'' इसमें प्रतीक की बात यह छिपी है कि जो कमजोरी पर प्रहार करता है वह शत्रुघ्न कहलाता है और हमें अपने शत्रु का नाश ऐसे ही करना चाहिए। लोभ हमारा सबसे बड़ा शत्रु है, कमजोरी है इसे बक्शना नहीं चाहिए। वरना जो लोग कमजोरियों को ढोते हैं एक दिन वह कमजोरी उनको पटकनी दे देती है।
प्रकृति की गोद में मिलेगा परमात्मा
http://images.indiainfo.com/web2images/religion.bhaskar.com/2010/07/03/images/nature_310_f.jpg
हम किसी धार्मिक स्थान में प्रवेश करते ही अपनेआप को थोड़ा हल्का महसूस करते हैं। भगवान के दर्शन हो जाएं तो थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन हम अपनी सारी परेशानी, चिंता और थकान भूल जाते हैं। ऐसा ही तब भी होता है जब हम किसी प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण स्थान की यात्रा करते हैं। दरअसल इस समय हमारे भीतर जो परिवर्तन आता है वह दो कारणों से होता है, पहला उस स्थान पर होने वाली परमशक्ति और दूसरा हमारे भीतर की ऊर्जा। अगर भगवान के दर्शन का आनंद लेना हो तो पहले अपने भीतर की भक्ति को जगाइए। इससे आपकी आधी परेशानी खत्म हो जाएगी। आपको प्रकृति की गोद में ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी।
एक सामान्य सी बात है जो हमेशा से कही जा रही है कि भक्ति के संसार में देव दर्शन का बड़ा महत्व है। धार्मिक स्थलों में जाकर जो राहत मिलती है वह एक तरफा नहीं होती। मंदिर हो या मस्जिद, गुरुद्वारा हो या गिरजा घर। यहां प्रवेश से पहले और बाद में अनुभूति में जो परिवर्तन होता है वह उन स्थानों में मौजूद परम शक्ति की तरफ से ही हो ऐसा नहीं है। आधा प्रयास प्रवेश करने वाले को भी करना पड़ेगा। यदि आप भीतर से प्रसन्न हैं तो किसी भी धार्मिक स्थल या प्रतिमा को देखकर प्रसन्नता बढ़ सकतीहै। यदि आप दुखी हैं तो हो सकता है वह स्थान आपको बहुत राहत न पहुंचाए। आपका अपना कॉन्ट्रिब्यूशन बड़ा महत्वपूर्ण है।
रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने चार स्थानों पर प्रकृति का बड़ा अद्भुत वर्णन किया है। इसके पीछे उनका कवि होना नहीं था, वे भक्त के रूप में प्रकृति का वर्णन कर रहे थे क्योंकि उनकी दृष्टि में प्रकृति और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। दार्शनिक लोग कहते हैं प्रकृति परमात्मा का नृत्य करता हुआ स्वरूप है। नृत्य शब्द इसलिए कहा गया है कि इसमें कलाकार और कला के एक होने की संभावना सबसे अधिक होती है। अन्य कलाओं में दोनों में भेद बना रहता है। गायन हो या वादन कलाकार कितना ही अच्छा प्रदर्शन करे लेकिन कला और उसमें दूरी बनी हुई है परंतु जब तक नृत्य और नाचने वाला एक न हो जाएं कला पूर्ण नहीं होती। प्रकृति, परमात्मा, नृत्य और नर्तक की तरह हैं। हम परमात्मा से मिलना चाहें तो ऐसे मिलें जैसे प्रकृति और परमात्मा एक-दूसरे से मिले हुए हैं। यह भाव आते ही हमारे भीतर प्रसन्नता जागेगी, यहां से उदासी मिटेगी। इसलिए जिन्हें अपने भीतर भक्ति जगाना हो, वे प्रकृति से अत्यधिक प्रेम करें।
हम किसी धार्मिक स्थान में प्रवेश करते ही अपनेआप को थोड़ा हल्का महसूस करते हैं। भगवान के दर्शन हो जाएं तो थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन हम अपनी सारी परेशानी, चिंता और थकान भूल जाते हैं। ऐसा ही तब भी होता है जब हम किसी प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण स्थान की यात्रा करते हैं। दरअसल इस समय हमारे भीतर जो परिवर्तन आता है वह दो कारणों से होता है, पहला उस स्थान पर होने वाली परमशक्ति और दूसरा हमारे भीतर की ऊर्जा। अगर भगवान के दर्शन का आनंद लेना हो तो पहले अपने भीतर की भक्ति को जगाइए। इससे आपकी आधी परेशानी खत्म हो जाएगी। आपको प्रकृति की गोद में ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी।
एक सामान्य सी बात है जो हमेशा से कही जा रही है कि भक्ति के संसार में देव दर्शन का बड़ा महत्व है। धार्मिक स्थलों में जाकर जो राहत मिलती है वह एक तरफा नहीं होती। मंदिर हो या मस्जिद, गुरुद्वारा हो या गिरजा घर। यहां प्रवेश से पहले और बाद में अनुभूति में जो परिवर्तन होता है वह उन स्थानों में मौजूद परम शक्ति की तरफ से ही हो ऐसा नहीं है। आधा प्रयास प्रवेश करने वाले को भी करना पड़ेगा। यदि आप भीतर से प्रसन्न हैं तो किसी भी धार्मिक स्थल या प्रतिमा को देखकर प्रसन्नता बढ़ सकतीहै। यदि आप दुखी हैं तो हो सकता है वह स्थान आपको बहुत राहत न पहुंचाए। आपका अपना कॉन्ट्रिब्यूशन बड़ा महत्वपूर्ण है।
रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने चार स्थानों पर प्रकृति का बड़ा अद्भुत वर्णन किया है। इसके पीछे उनका कवि होना नहीं था, वे भक्त के रूप में प्रकृति का वर्णन कर रहे थे क्योंकि उनकी दृष्टि में प्रकृति और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। दार्शनिक लोग कहते हैं प्रकृति परमात्मा का नृत्य करता हुआ स्वरूप है। नृत्य शब्द इसलिए कहा गया है कि इसमें कलाकार और कला के एक होने की संभावना सबसे अधिक होती है। अन्य कलाओं में दोनों में भेद बना रहता है। गायन हो या वादन कलाकार कितना ही अच्छा प्रदर्शन करे लेकिन कला और उसमें दूरी बनी हुई है परंतु जब तक नृत्य और नाचने वाला एक न हो जाएं कला पूर्ण नहीं होती। प्रकृति, परमात्मा, नृत्य और नर्तक की तरह हैं। हम परमात्मा से मिलना चाहें तो ऐसे मिलें जैसे प्रकृति और परमात्मा एक-दूसरे से मिले हुए हैं। यह भाव आते ही हमारे भीतर प्रसन्नता जागेगी, यहां से उदासी मिटेगी। इसलिए जिन्हें अपने भीतर भक्ति जगाना हो, वे प्रकृति से अत्यधिक प्रेम करें।
Thursday, March 11, 2010
विश्वास के कोमल धागों से है बनता, रिश्तो का संसार |
ज्ञान नहीं, धन नहीं, प्रेम है जीवन का आधार ||
जो प्रेम, स्वार्थ की सीमाओं से परे, करे, वो दोस्त |
खाली जीवन को, स्वर्णिम लम्हों से करे, हरे भरे, वो दोस्त ||
वो दोस्त, समझ हो जिसे, दोस्त की हर धड़कन की |
वो दोस्त, समझ हो जिसे, इस अटूट बन्धन की ||
यह तन नश्वर, जीवन नश्वर, है नश्वर यह संसार |
जो मिटे नहीं, रहे अमर सदा, वो है, दोस्ती – एक अमूल्य उपहार
ज्ञान नहीं, धन नहीं, प्रेम है जीवन का आधार ||
जो प्रेम, स्वार्थ की सीमाओं से परे, करे, वो दोस्त |
खाली जीवन को, स्वर्णिम लम्हों से करे, हरे भरे, वो दोस्त ||
वो दोस्त, समझ हो जिसे, दोस्त की हर धड़कन की |
वो दोस्त, समझ हो जिसे, इस अटूट बन्धन की ||
यह तन नश्वर, जीवन नश्वर, है नश्वर यह संसार |
जो मिटे नहीं, रहे अमर सदा, वो है, दोस्ती – एक अमूल्य उपहार
Saturday, February 27, 2010
Friday, February 26, 2010
करें जब पाँव खुद नर्तन, समझ लेना की होली है
हिलोरें ले रहा हो मन, समझ लेना की होली है
इमारत इक पुरानी सी, रुके बरसों से पानी सी
लगे बीवी वही नूतन,समझ लेना की होली है
तरसती जिसके हों दीदार तक को आपकी आंखें
उसे छूने का आये क्षण, समझ लेना की होली है
हमारी ज़िन्दगी यूँ तो है इक काँटों भरा जंगल
अगर लगने लगे मधुबन, समझ लेना की होली है
कभी खोलो हुलस कर, आप अपने घर का दरवाजा
खड़े देहरी पे हों साजन, समझ लेना की होली है
बुलाये जब तुझे वो गीत गा कर ताल पर ढफ की
जिसे माना किये दुश्मन, समझ लेना की होली है
अगर महसूस हो तुमको, कभी जब सांस लो 'नीरज'
हवाओं में घुला चन्दन, समझ लेना की होली है
हिलोरें ले रहा हो मन, समझ लेना की होली है
इमारत इक पुरानी सी, रुके बरसों से पानी सी
लगे बीवी वही नूतन,समझ लेना की होली है
तरसती जिसके हों दीदार तक को आपकी आंखें
उसे छूने का आये क्षण, समझ लेना की होली है
हमारी ज़िन्दगी यूँ तो है इक काँटों भरा जंगल
अगर लगने लगे मधुबन, समझ लेना की होली है
कभी खोलो हुलस कर, आप अपने घर का दरवाजा
खड़े देहरी पे हों साजन, समझ लेना की होली है
बुलाये जब तुझे वो गीत गा कर ताल पर ढफ की
जिसे माना किये दुश्मन, समझ लेना की होली है
अगर महसूस हो तुमको, कभी जब सांस लो 'नीरज'
हवाओं में घुला चन्दन, समझ लेना की होली है
रंग गुलाल न होली होती,
ओंठ हंसी न खिलती ,
सतरंगी हो मनुआ नाचे
तबही होली होती ॥
आम की डाल गई बौरा,
फूल वे डोल रहा भौंरा ॥
रंग बसंती धरती ओढे
कली को छेड रहा भौरा ॥
गली गली जब पुरवा महके
तबही होली होती ॥
कहीं पे ढोल मजीरे बाजे
फागुन गीत पवन लहराये ॥
गुनगुन रूनझुन शोर मचा है
सुनती हूँ अखियाँ मीचे
मन फगुनाता धीरे धीरे
तब ही होली होती ॥
जेठ देवर भाभी और भैया,
जीजा साली और ननदुइया ॥
रिश्ते सारे पिघले लगते,
रंग सागर में बूड़े रहते ।
हंसी ठिठोली सहेली लागे,
तबही होली होती ॥
एक बरस में एक बारही
आता फागुन का महीना
पुलक प्रगट करती है धरती
पहन वसन झीना झीना ,
मन की गांठे खुल जाती है
तब ही होली होती ॥
ओंठ हंसी न खिलती ,
सतरंगी हो मनुआ नाचे
तबही होली होती ॥
आम की डाल गई बौरा,
फूल वे डोल रहा भौंरा ॥
रंग बसंती धरती ओढे
कली को छेड रहा भौरा ॥
गली गली जब पुरवा महके
तबही होली होती ॥
कहीं पे ढोल मजीरे बाजे
फागुन गीत पवन लहराये ॥
गुनगुन रूनझुन शोर मचा है
सुनती हूँ अखियाँ मीचे
मन फगुनाता धीरे धीरे
तब ही होली होती ॥
जेठ देवर भाभी और भैया,
जीजा साली और ननदुइया ॥
रिश्ते सारे पिघले लगते,
रंग सागर में बूड़े रहते ।
हंसी ठिठोली सहेली लागे,
तबही होली होती ॥
एक बरस में एक बारही
आता फागुन का महीना
पुलक प्रगट करती है धरती
पहन वसन झीना झीना ,
मन की गांठे खुल जाती है
तब ही होली होती ॥
> लगें छलकने इतनी खुशियां , बरसें सबकी झोली मे
> बीते वक्त सभी का जमकर , हंसने और ठिठोली मे
> लगा रहे जो इस होली से , आने वाली होली तक
> ऐसा कोई रंग लगाया , जाये अबके होली मे
> नजरें उठाओ अपनी सब आस पास यारों
> इस बार रह न जाये कोई उदास यारों
> सच मायने मे होली ,तब जा के हो सकेगी
> जब एक सा दिखेगा , हर आम-खास यारों
> और
> मौज मस्ती , ढेर सा हुडदंग होना चाहिये
> नाच गाना , ढोल ताशे , चंग होन चाहिये
> कोई ऊंचा ,कोई नीचा , और छोटा कुछ नही
> हर किसी का एक जैसा रंग होना चाहिये
> बीते वक्त सभी का जमकर , हंसने और ठिठोली मे
> लगा रहे जो इस होली से , आने वाली होली तक
> ऐसा कोई रंग लगाया , जाये अबके होली मे
> नजरें उठाओ अपनी सब आस पास यारों
> इस बार रह न जाये कोई उदास यारों
> सच मायने मे होली ,तब जा के हो सकेगी
> जब एक सा दिखेगा , हर आम-खास यारों
> और
> मौज मस्ती , ढेर सा हुडदंग होना चाहिये
> नाच गाना , ढोल ताशे , चंग होन चाहिये
> कोई ऊंचा ,कोई नीचा , और छोटा कुछ नही
> हर किसी का एक जैसा रंग होना चाहिये
आज के दिन इस दुनिया में, फिर बंदूक चलेगी
कहीं निकलेगी गोली इससे, और कहीं होली मनेगी।
कहीं पे बच्चे ले के घूमें, बंदुकनुमा पिचकारी
और देखो कहीं पे गूँजें, बच्चों की सिसकारी।
रंग वही है लाल सब जगह, मगर फर्क है इतना
एक रंग से नफरत फैले, दूजे में प्यार है कितना।
आओ मिला दें सब रंगों को, हर दिल में प्यार जगा दें
अगली होली से पहले, हम नफरत दूर भगा दें।
कहे ‘तरूण’ इस होली देखो, सुंदर प्यारा सपना
सबके दिल में प्यार बढे, सागर में पानी जितना
कहीं निकलेगी गोली इससे, और कहीं होली मनेगी।
कहीं पे बच्चे ले के घूमें, बंदुकनुमा पिचकारी
और देखो कहीं पे गूँजें, बच्चों की सिसकारी।
रंग वही है लाल सब जगह, मगर फर्क है इतना
एक रंग से नफरत फैले, दूजे में प्यार है कितना।
आओ मिला दें सब रंगों को, हर दिल में प्यार जगा दें
अगली होली से पहले, हम नफरत दूर भगा दें।
कहे ‘तरूण’ इस होली देखो, सुंदर प्यारा सपना
सबके दिल में प्यार बढे, सागर में पानी जितना
रंग फुहारों से हर ओर
भींग रहा है घर आगंन
फागुन के ठंडे बयार से
थिरक रहा हर मानव मन !
लाल गुलाबी नीली पीली
खुशियाँ रंगों जैसे छायीं
ढोल मजीरे की तानों पर
बजे उमंगों की शहनाई !
गुझिया पापड़ पकवानों के
घर घर में लगते मेले
खाते गाते धूम मचाते
मन में खुशियों के फूल खिले !
रंग बिरंगी दुनिया में
हर कोई लगता एक समान
भेदभाव को दूर भागता
रंगों का यह मंगलगान !
पिचकारी के बौछारों से
चारो ओर छाई उमंग
खुशियों के सागर में डूबी
दुनिया में फैली प्रेम तरंग !
भींग रहा है घर आगंन
फागुन के ठंडे बयार से
थिरक रहा हर मानव मन !
लाल गुलाबी नीली पीली
खुशियाँ रंगों जैसे छायीं
ढोल मजीरे की तानों पर
बजे उमंगों की शहनाई !
गुझिया पापड़ पकवानों के
घर घर में लगते मेले
खाते गाते धूम मचाते
मन में खुशियों के फूल खिले !
रंग बिरंगी दुनिया में
हर कोई लगता एक समान
भेदभाव को दूर भागता
रंगों का यह मंगलगान !
पिचकारी के बौछारों से
चारो ओर छाई उमंग
खुशियों के सागर में डूबी
दुनिया में फैली प्रेम तरंग !
फागुन आया उड़ रहाअबीर और गुलाल
होली में सब मस्त हुएकिसका पूछे हाल
बसंती रंगो मे डूबे
khila हास परिहासफागुन में मदमस्त हुए सबछाया उल्लास
सरसों फूली टेसू महकाखिला हारसिंगार
पीली चुनर ओढ़करप्रकृति ने किया श्रृंगार .
हो मंगलमय सबकी होली।
जिसने-जिसने पहने थे
भीगे उसके लहँगा-चोली।
जीजाजी रँग हैं लगा रहे,
साली उनकी कितनी भोली।
सब नाच रहे भँगडा-पा कर
रँग लाई भंग की इक गोली।
लेकर पिचकारी-गुब्बारे,
निकली होलिहारों की टोली।
पान बनारस का खाके,
ठंडाई मेँ मिसरी घोली ।
गम अपने-अपने भूले जब,
मिल गए गले सब हमजोली ।
घुल गये होली के रंगों में,
सब छाप-तिलक-चन्दन-रोली।
कोई कैसे चुपचाप रहे,
कोलाहल की तूती बोली
सुमधुर स्वर दसों-दिशाओं में,
बागोँ मेँ कोयल है डोली।
शरमाए-से सूरज ने भी
किरणों की गठरी खोली।
हो मंगलमय सबकी होली।
होली में सब मस्त हुएकिसका पूछे हाल
बसंती रंगो मे डूबे
khila हास परिहासफागुन में मदमस्त हुए सबछाया उल्लास
सरसों फूली टेसू महकाखिला हारसिंगार
पीली चुनर ओढ़करप्रकृति ने किया श्रृंगार .
हो मंगलमय सबकी होली।
जिसने-जिसने पहने थे
भीगे उसके लहँगा-चोली।
जीजाजी रँग हैं लगा रहे,
साली उनकी कितनी भोली।
सब नाच रहे भँगडा-पा कर
रँग लाई भंग की इक गोली।
लेकर पिचकारी-गुब्बारे,
निकली होलिहारों की टोली।
पान बनारस का खाके,
ठंडाई मेँ मिसरी घोली ।
गम अपने-अपने भूले जब,
मिल गए गले सब हमजोली ।
घुल गये होली के रंगों में,
सब छाप-तिलक-चन्दन-रोली।
कोई कैसे चुपचाप रहे,
कोलाहल की तूती बोली
सुमधुर स्वर दसों-दिशाओं में,
बागोँ मेँ कोयल है डोली।
शरमाए-से सूरज ने भी
किरणों की गठरी खोली।
हो मंगलमय सबकी होली।
प्यार जिनके लिए ठिठोली है
सोच उनकी हुजूर पोली है
बर्फ रिश्तों से जब पिघल जाए
तब समझना की यार होली है
याद का यूँ नशा चढ़े तेरी
भंग की ज्यूँ चढाई गोली है
गुफ्तगू का मज़ा कहाँ प्यारे
बात गर सोच सोच बोली है
मस्तियां देख कर नहीं आतीं
ये महल है कि कोई खोली है
बोल कर झूट ना बचा कोई
सोच मेरी जनाब भोली है
आप उस पर यकीन मत करना
वो सियासत पसंद टोली है
खूब रब ने दिया तुझे नीरज
दिल मगर क्यों बिछाए झोली है
रंग दे कोई
रंग गुलाबी
भेज दे कोई
ख़त जवाबी
लगा दे कोई
बारिश रिमझिम
सेका दे कोई
धूप गुनगुनी
सुना दे कोई
माँ की लोरी
कह दे कोई
बात इक कोरी
सुना दे कोई
इक किलकारी
खिला दे कोई
सारी क्यारी
खिला दे कोई
आम आँमला
दिखा दे कोई
श्याम साँवला
ओढ़ा दे कोई
अम्बर नीला
बिछा दे कोई
मंजा ढीला
बिठा दे कोई
पीपल छईयाँ
डाल दे कोई
गले में बहिंयाँ
मिला दे कोई
मीत पुराना
सुना दे कोई
गीत पुराना
बता दे कोई
पता ठिकाला
कह दे कोई
बात सयाना।
रंग गुलाबी
भेज दे कोई
ख़त जवाबी
लगा दे कोई
बारिश रिमझिम
सेका दे कोई
धूप गुनगुनी
सुना दे कोई
माँ की लोरी
कह दे कोई
बात इक कोरी
सुना दे कोई
इक किलकारी
खिला दे कोई
सारी क्यारी
खिला दे कोई
आम आँमला
दिखा दे कोई
श्याम साँवला
ओढ़ा दे कोई
अम्बर नीला
बिछा दे कोई
मंजा ढीला
बिठा दे कोई
पीपल छईयाँ
डाल दे कोई
गले में बहिंयाँ
मिला दे कोई
मीत पुराना
सुना दे कोई
गीत पुराना
बता दे कोई
पता ठिकाला
कह दे कोई
बात सयाना।
आज मेरी देह की होली जला दो !
घिर गया जब घोर अँधियारा गगन में
घुट रहे हैं प्राण सदियों से जलन में
विश्व ज्योतिर्मय करो भावी मनुज, लो —
आज मेरी देह की होली जला दो !
ज्वाल की लपटें समा लें अश्रु-सागर,
हो अशिव सब भस्म जग का मौन कातर,
मात्र उसको हर असुन्दर कण बता दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
ज्वाल होगी जो प्रलय तक साथ देगी
सूर्य-सी जल भू-गगन रौशन करेगी,
इसलिए, तम से घिरों को ला मिला दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
यह जलेगी भव्य शोभा संचिता हो,
घेर लेना विश्व तुम मेरी चिता को,
देखकर बलिदान की धारा बहा दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
घिर गया जब घोर अँधियारा गगन में
घुट रहे हैं प्राण सदियों से जलन में
विश्व ज्योतिर्मय करो भावी मनुज, लो —
आज मेरी देह की होली जला दो !
ज्वाल की लपटें समा लें अश्रु-सागर,
हो अशिव सब भस्म जग का मौन कातर,
मात्र उसको हर असुन्दर कण बता दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
ज्वाल होगी जो प्रलय तक साथ देगी
सूर्य-सी जल भू-गगन रौशन करेगी,
इसलिए, तम से घिरों को ला मिला दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
यह जलेगी भव्य शोभा संचिता हो,
घेर लेना विश्व तुम मेरी चिता को,
देखकर बलिदान की धारा बहा दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'जीत ' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'जीत ' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।
आयी है रंगो की बहार
गोरी होली खेलन चली
ललिता भी खेले विशाखा भी खेले
संग में खेले नंदलाल...
गोरी होली खेलन चली ।
लाल गुलाल वे मल मल लगावें
होवत होवें लाल लाल...
गोरी होली खेलन चली
रूठी राधिका को श्याम मनावें
प्रेम में हुए हैं निहाल...
गोरी होली खेलन चली
सब रंगों में प्रेम रंग सांचा
लागत जियरा मारै उछाल...
गोरी होली खेलन चली
होली खेलत वे ऐसे मगन भयीं
मनुंआ में रहा न मलाल...
गोरी होली खेलन
तन भी भीग गयो मन भी भीग गयो
भीगा है सोलह शृंगार...
गोरी होली खेलन चली
झ्सको सतावें उसको मनावें
कान्हा की देखो यह चाल...
गोरी होली खेलन चली
कैसे बताऊँ मैं कैसे छुपाऊँ
रंगों ने किया है जो हाल...
गोरी होली खेलन चली
आओ मिल के प्रेम बरसायें
अम्बर तक उड़े गुलाल...
गोरी होली खेलन चली ।
गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में
नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में
है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में
रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आँख दिखाकर करो सरशार होली में
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
"होली के रंग "
"होली के रंग "
तेरे दीदार को तरसे हैं हम .......
सूरत तो दिखाने आ जा.......|
कैसे मिलते तुझसे........
रंगों के बहाने आ जा .......
रंग प्यार के हम सब घोलें........
अपनेपन के हों गुब्बारें ......|
इन रंगों की तेज धार से........
बह जांय नफरत की दीवारें .....||
ऐसे रंगना हमें........
दुश्मन पे प्यार आ जाए.......|
भूलकर शिकवे सारे. ......
गले मिल लें बहार आ जाए.....||
अनेक रंग है इस पर्व के, अनेक रंग समेटे है ये
त्योहार है ये रंगों का, अनेक रंग समेटे है ये
पर्व ये ऐसा जब रंग सारे खिलते है,
बैर और दुश्मनी के दंभ सारे धुलते हैं,
बहता है रंग जो चहुं ओर
मित्रता के संगत बनते हैं
पर्व ये ऐसा जब रंग सारे खिलते है,
प्रीत की रीत के परिणय बनते हैं,
होती है मादकता हर ओर
प्रेम के मधुर पग बढ़ते हैं
पर्व ये ऐसा जब रंग सारे खिलते हैं,
जीवन पे पसरी नीरसता मिटती है,
होती है प्रसन्नता सभी ओर
नयी उमंग में सब संग बढ़ते है
अनेक रंग है इस पर्व के, अनेक रंग समेटे है ये
त्योहार है ये रंगों का, अनेक रंग समेटे है ये
होली आई , खुशियाँ लाई
खेले राधा सँग कन्हाई
फैन्के इक दूजे पे गुलाल
हरे , गुलाबी ,पीले गाल
प्यार का यह त्योहार निराला
खुश है कान्हा सँग ब्रजबाला
चढा प्रेम का ऐसा रँग
मस्ती मे झूम अन्ग-अन्ग
आओ हम भी खेले होली
नही देन्गे कोई मीठी गोली
हम खेले शब्दो के सँग
भावो के फैन्केगे रन्ग
रन्ग-बिरन्गे भाव दिखेन्गे
आज हम होली पे लिखेन्गे
चलो होलिका सब मिल के जलाएँ
एक नया इतिहास बनाएँ
जलाएँ उसमे बुरे विचार
कटु-भावो का करे तिरस्कार
नफरत की दे दे आहुति
आज लगाएँ प्रेम भभूति
प्रेम के रन्ग मे सब रन्ग डाले
नफरत नही कोई मन मे पाले
सब इक दूजे के हो जाएँ
आओ हम सब होली मनाएँ
Sunday, January 31, 2010
जो जागा
गलतियों का
पुतला है
आदमी।
भोलेपन में,
प्रवाह में,
आवेश में,
नादानी में,
हो सकती हैं
गलतियां।
क्या जरू री है
हर गलती का
लाभ उठाता रहे
जमाना,
कोई तो मिले
जो रोक सके
हाथों को
गलती करते समय
कोई तो दिखाए रास्ता
जीवन की सच्चाई का।
जब हाथ उठता है
गलती करने को
मन छूट जाता है
पकड़ से
तब वहां
उस माहौल में
कौन मिलेगा मनीषी
खोजता हुआ
अपने ईश्वर को
और, जो जागा,
मनीषी हो जाएगा।
पुतला है
आदमी।
भोलेपन में,
प्रवाह में,
आवेश में,
नादानी में,
हो सकती हैं
गलतियां।
क्या जरू री है
हर गलती का
लाभ उठाता रहे
जमाना,
कोई तो मिले
जो रोक सके
हाथों को
गलती करते समय
कोई तो दिखाए रास्ता
जीवन की सच्चाई का।
जब हाथ उठता है
गलती करने को
मन छूट जाता है
पकड़ से
तब वहां
उस माहौल में
कौन मिलेगा मनीषी
खोजता हुआ
अपने ईश्वर को
और, जो जागा,
मनीषी हो जाएगा।
आनन्द
जिसकी जीवन भर सबको तलाश रहती है उसी को आनंद कहते हैं। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का सूचक शब्द है। और सृष्टि विस्तार का मूल कारक भी है। आनन्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती। आनन्द प्राप्त हो जाने के बाद कुछ और पाने की कामना भी नहीं रह जाती। आनन्द और सुख एक नहीं हैं। आनन्द आत्मा का तत्व है, जबकि सुख-दु:ख मन के विषय हैं। किसी भी दो व्यक्तियों के सुख-दु:ख की परिभाषा एक नहीं हो सकती। हर व्यक्ति का मन, कामना, प्रकृति के आवरण भिन्न होते हैं। अत: हर व्यक्ति का सुख-दु:ख भी अलग-अलग होता है। आनन्द स्थायी भाव है।
लोग अनेक प्रकार के स्वभाव वाले होते हैं। एक शरीर जीवी इनका सुख शरीर के आगे नहीं जाता। व्यायाम-अखाड़े से लेकर सुख भोगने तक ही सीमित रहता है। इसके आगे इनका सुख-दु:ख भी नहीं है। मनोजीवी अपने मनस्तंभ में आसक्त रहता है। कहीं किसी कला में रमा रहता है या नृत्य, गायन, वादन में। ये तो देश-काल के अनुरूप बदलते रहते हैं। हर सभ्यता की अपनी कलाएं और मन रंजन होते हैं। इनके जीवन में सांस्कृतिक गंभीरता का अभाव रहता है। इन्हीं विद्या का योग आत्मा से नहीं बन पाता। चंचल मना रह जाते हैं। प्रवाह में जीने को ही श्रेष्ठ मानते हैं। बुद्धिवादी आदतन नास्तिक बने रहना चाहते हैं। किसी न किसी दर्शन को लेकर अथवा किसी अन्य के विचारों पर उलझते ही नजर आते हैं। मनोरंजन, हंसी-मजाक से सर्वथा दूर, न शरीर को स्वस्थ रखने की चिन्ता होती है। स्वभाव से सदा रूक्ष बुद्धिमानों की कमी नहीं है। शरीर जीवियों को मन की कोमलता अनुभूतियों का कोई अनुभव ही नहीं होता। एक वर्ग स्वयं आत्मवादी मानकर जीता है। सहज जीवन से पूर्णतया अलग होता है।
मूलत: ये चार श्रेणियां हैं, जिनमें साधारण व्यक्ति जीता है और आनन्द को खोजता रहता है। खण्ड दृष्टि से अखण्ड आनन्द किसको अनुभव हो सकेगा आनन्द तो मूल मन (अव्यय मन) के साथ जुड़ा रहता है। भक्ति में आह्लादित होने जैसा है। आनन्द प्राप्ति की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति समग्रता में जीना सीखे। उसके शरीर, मन, बुद्धि आत्मा के साथ जुड़े रहें। आत्मा से जुड़ा आनन्द तभी तो शरीर-मन-बुद्धि की अनुभूति में आएगा। योग का एकमात्र लक्ष्य भी यही है।
इसके विपरीत सुख-दु:ख मानव मन की कल्पना पर आधारित रहते हैं। इनका सम्बन्ध इन्द्रियों एवं एन्द्रिय सुख-दु:ख से ही रहता है। तात्कालिक भी होता है। किसी विषय अथवा परिस्थिति के कारण पैदा होता है और उसके साथ विदा भी हो जाता है। जब भी व्यक्ति के जीवन में समग्रता टूटती है, वह तात्कालिक सुख में ही अटक जाता है। उसके लिए सुख-दु:ख भी एक द्वन्द्व बनकर रह जाता है। गहनता तो होती ही नहीं है। क्योंकि वह पूर्ण मानव की तरह जीता ही नहीं है। अनेक पशु-पक्षी भी इन क्षेत्रों में मानव से आगे निकल जाते हैं। चाहे शारीरिक बल में हों अथवा बुद्धि के स्तर पर। मानव की श्रेष्ठता तो इनकी समग्रता में ही है।
जब किसी भी कार्य में शरीर-मन-बुद्धि और आत्मा एक साथ जुड़ेंगे, तभी व्यक्ति सुख-दु:ख के मिथक को तोड़ सकता है। शरीर और बुद्धि को तो सुख-दु:ख का अनुभव ही नहीं होता। मन को होता है, जो स्वयं आवरित होता है। बुद्धि स्वयं आवरित है। अत: जो सामने दिखाई पड़ता है, उसी के आधार पर सुख-दु:ख का ग्रहण कर लेता है। इन्द्रियों की पकड़ सूक्ष्म पर होती ही नहीं। अत: मन को बार-बार स्थूल और दृश्य पर टिकाती रहती हैं। मन पर इंद्रियों द्वारा विषय आ-आकर पड़ते हैं। चंचलता के कारण मन खुद को रोक नहीं पाता और प्रवाह में बह पड़ता है। उसी को सुख मान बैठता है।
ज्ञान के योग से जैसे ही बुद्धि में विद्या का प्रवेश होने लगता है, मन का स्वरूप बदलने लगता है। मन की भूमिका, दिशा और ग्राह्यता बदलने लगती है। अब वह भीतर की और भी मुड़ने लगता है। प्रवाह की गति धीमी होने लगती है। अब मन इच्छाओं का आकलन करके ही स्वीकृत करने लगता है। हर इच्छा को पूरी करने नहीं भागता। मन की संवेदना जाग्रत होने लगती है। यहीं से आनन्द का मार्ग प्रशस्त होता है।
जिस प्रकार किसी पात्र में भरा जल हिलता है, वैसे ही संवेदना के कारण मन में भी रस का प्रवाह बनने लगता है। यह प्रेम प्रवाह आनन्द तक पहुंचने का मार्ग है। रसानन्द और आनन्द एक ही है। रसा को ही ब्रrा कहते हैं। संवेदना के जागरण से व्यक्ति के धर्म में परिवर्तन आता है। पाषाण-मन अब पिघलने लगता है। दया-करूणा दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी को दु:खी देकर आंसू बहने लगते हैं। यह आंसू भी उसी आनन्द का दूसरा छोर है। अधिक प्रसन्नता भी आंसू लाती है। अत्यन्त दु:ख की घड़ी में रोते-रोते भी हंसी छूट जाती है।
व्यक्ति जैसे-जैसे स्वयं को जानने लगता है, उसी क्रम में उसका बाहरी व्यवहार भी बदलता जाता है। उसके अहंकार और ममकार भी द्रवित होने लगते हैं। कल्पित सुख-दु:ख अब उसे स्पष्ट समझ में आने लगते हैं। उनके अर्थ बदल जाते हैं। मन के साथ-साथ प्राणों का व्यापार बदलता है। प्राण सदा मन के साथ रहते हैं और मन का अनुसरण करते हैं। मन की इच्छाओं का स्वरूप बदल जाता है। इनको खाना-पीना-पहनना जैसे क्षेत्रों में आसानी से देखा जा सकता है। व्यक्ति स्वचिन्तन में व्यस्त रहने लग जाता है। अब मिठास किसी अन्य स्तर पर दिखता है।
जैसे-जैसे प्राण उघ्र्वगामी होते हैं, चिन्तन के विष्ाय बदलते हैं। व्यक्ति का आभा मण्डल बदलता है। आकाश से कौन से प्राण आकर्षित होंगे, किन प्राणों का आकाश में विसर्जन होगा, यह अनायास ही सारा क्रम परिवर्तित हो जाता है। नए भावों के अनुरूप नए प्राण आते हैं। पुराने विचारों की श्रृंखला टूटने लगती है। व्यक्ति का मन अन्नमय और मनोमय कोश के आगे विज्ञानमय कोश में प्रवेश करने लगता है। प्रज्ञा जाग्रत होने लगती है। प्रज्ञा के सहारे व्यक्ति अपने सूक्ष्म स्तर को समझने लगता है। स्थूल की तरह सूक्ष्म का भी परिष्कार करने लगता है। प्रकृति के आवरणों का हटाता है। सत्व में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करता है। अब तक व्यक्ति का मन इतना निर्मल हो चुका होता है कि वह प्राणी मात्र के प्रति संवेदनशील होने लगता है। मुख मण्डल पर शान्ति और प्रसन्नता का भाव सहज रूप से स्थायी होने लगता है। वैखरी, मघ्यम को पार करके पश्यन्ति में, मानसी धरातल पर जीने लगता है। बाहर जुड़े रहते हुए भी बेलाग हो जाता है। उसकी कामनाओं की श्रंखला भी टूट जाती है। मन मर जाता है। ह्वदय रूपी अक्षर प्राण-ब्रrाा-विष्णु इन्द्र का स्वरूप दिखाई देते ही एक आह्लाद प्रकट होता है। इसी के सहारे से व्यक्ति स्थायी आनन्द में प्रतिष्ठित हो जाता है।
लोग अनेक प्रकार के स्वभाव वाले होते हैं। एक शरीर जीवी इनका सुख शरीर के आगे नहीं जाता। व्यायाम-अखाड़े से लेकर सुख भोगने तक ही सीमित रहता है। इसके आगे इनका सुख-दु:ख भी नहीं है। मनोजीवी अपने मनस्तंभ में आसक्त रहता है। कहीं किसी कला में रमा रहता है या नृत्य, गायन, वादन में। ये तो देश-काल के अनुरूप बदलते रहते हैं। हर सभ्यता की अपनी कलाएं और मन रंजन होते हैं। इनके जीवन में सांस्कृतिक गंभीरता का अभाव रहता है। इन्हीं विद्या का योग आत्मा से नहीं बन पाता। चंचल मना रह जाते हैं। प्रवाह में जीने को ही श्रेष्ठ मानते हैं। बुद्धिवादी आदतन नास्तिक बने रहना चाहते हैं। किसी न किसी दर्शन को लेकर अथवा किसी अन्य के विचारों पर उलझते ही नजर आते हैं। मनोरंजन, हंसी-मजाक से सर्वथा दूर, न शरीर को स्वस्थ रखने की चिन्ता होती है। स्वभाव से सदा रूक्ष बुद्धिमानों की कमी नहीं है। शरीर जीवियों को मन की कोमलता अनुभूतियों का कोई अनुभव ही नहीं होता। एक वर्ग स्वयं आत्मवादी मानकर जीता है। सहज जीवन से पूर्णतया अलग होता है।
मूलत: ये चार श्रेणियां हैं, जिनमें साधारण व्यक्ति जीता है और आनन्द को खोजता रहता है। खण्ड दृष्टि से अखण्ड आनन्द किसको अनुभव हो सकेगा आनन्द तो मूल मन (अव्यय मन) के साथ जुड़ा रहता है। भक्ति में आह्लादित होने जैसा है। आनन्द प्राप्ति की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति समग्रता में जीना सीखे। उसके शरीर, मन, बुद्धि आत्मा के साथ जुड़े रहें। आत्मा से जुड़ा आनन्द तभी तो शरीर-मन-बुद्धि की अनुभूति में आएगा। योग का एकमात्र लक्ष्य भी यही है।
इसके विपरीत सुख-दु:ख मानव मन की कल्पना पर आधारित रहते हैं। इनका सम्बन्ध इन्द्रियों एवं एन्द्रिय सुख-दु:ख से ही रहता है। तात्कालिक भी होता है। किसी विषय अथवा परिस्थिति के कारण पैदा होता है और उसके साथ विदा भी हो जाता है। जब भी व्यक्ति के जीवन में समग्रता टूटती है, वह तात्कालिक सुख में ही अटक जाता है। उसके लिए सुख-दु:ख भी एक द्वन्द्व बनकर रह जाता है। गहनता तो होती ही नहीं है। क्योंकि वह पूर्ण मानव की तरह जीता ही नहीं है। अनेक पशु-पक्षी भी इन क्षेत्रों में मानव से आगे निकल जाते हैं। चाहे शारीरिक बल में हों अथवा बुद्धि के स्तर पर। मानव की श्रेष्ठता तो इनकी समग्रता में ही है।
जब किसी भी कार्य में शरीर-मन-बुद्धि और आत्मा एक साथ जुड़ेंगे, तभी व्यक्ति सुख-दु:ख के मिथक को तोड़ सकता है। शरीर और बुद्धि को तो सुख-दु:ख का अनुभव ही नहीं होता। मन को होता है, जो स्वयं आवरित होता है। बुद्धि स्वयं आवरित है। अत: जो सामने दिखाई पड़ता है, उसी के आधार पर सुख-दु:ख का ग्रहण कर लेता है। इन्द्रियों की पकड़ सूक्ष्म पर होती ही नहीं। अत: मन को बार-बार स्थूल और दृश्य पर टिकाती रहती हैं। मन पर इंद्रियों द्वारा विषय आ-आकर पड़ते हैं। चंचलता के कारण मन खुद को रोक नहीं पाता और प्रवाह में बह पड़ता है। उसी को सुख मान बैठता है।
ज्ञान के योग से जैसे ही बुद्धि में विद्या का प्रवेश होने लगता है, मन का स्वरूप बदलने लगता है। मन की भूमिका, दिशा और ग्राह्यता बदलने लगती है। अब वह भीतर की और भी मुड़ने लगता है। प्रवाह की गति धीमी होने लगती है। अब मन इच्छाओं का आकलन करके ही स्वीकृत करने लगता है। हर इच्छा को पूरी करने नहीं भागता। मन की संवेदना जाग्रत होने लगती है। यहीं से आनन्द का मार्ग प्रशस्त होता है।
जिस प्रकार किसी पात्र में भरा जल हिलता है, वैसे ही संवेदना के कारण मन में भी रस का प्रवाह बनने लगता है। यह प्रेम प्रवाह आनन्द तक पहुंचने का मार्ग है। रसानन्द और आनन्द एक ही है। रसा को ही ब्रrा कहते हैं। संवेदना के जागरण से व्यक्ति के धर्म में परिवर्तन आता है। पाषाण-मन अब पिघलने लगता है। दया-करूणा दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी को दु:खी देकर आंसू बहने लगते हैं। यह आंसू भी उसी आनन्द का दूसरा छोर है। अधिक प्रसन्नता भी आंसू लाती है। अत्यन्त दु:ख की घड़ी में रोते-रोते भी हंसी छूट जाती है।
व्यक्ति जैसे-जैसे स्वयं को जानने लगता है, उसी क्रम में उसका बाहरी व्यवहार भी बदलता जाता है। उसके अहंकार और ममकार भी द्रवित होने लगते हैं। कल्पित सुख-दु:ख अब उसे स्पष्ट समझ में आने लगते हैं। उनके अर्थ बदल जाते हैं। मन के साथ-साथ प्राणों का व्यापार बदलता है। प्राण सदा मन के साथ रहते हैं और मन का अनुसरण करते हैं। मन की इच्छाओं का स्वरूप बदल जाता है। इनको खाना-पीना-पहनना जैसे क्षेत्रों में आसानी से देखा जा सकता है। व्यक्ति स्वचिन्तन में व्यस्त रहने लग जाता है। अब मिठास किसी अन्य स्तर पर दिखता है।
जैसे-जैसे प्राण उघ्र्वगामी होते हैं, चिन्तन के विष्ाय बदलते हैं। व्यक्ति का आभा मण्डल बदलता है। आकाश से कौन से प्राण आकर्षित होंगे, किन प्राणों का आकाश में विसर्जन होगा, यह अनायास ही सारा क्रम परिवर्तित हो जाता है। नए भावों के अनुरूप नए प्राण आते हैं। पुराने विचारों की श्रृंखला टूटने लगती है। व्यक्ति का मन अन्नमय और मनोमय कोश के आगे विज्ञानमय कोश में प्रवेश करने लगता है। प्रज्ञा जाग्रत होने लगती है। प्रज्ञा के सहारे व्यक्ति अपने सूक्ष्म स्तर को समझने लगता है। स्थूल की तरह सूक्ष्म का भी परिष्कार करने लगता है। प्रकृति के आवरणों का हटाता है। सत्व में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करता है। अब तक व्यक्ति का मन इतना निर्मल हो चुका होता है कि वह प्राणी मात्र के प्रति संवेदनशील होने लगता है। मुख मण्डल पर शान्ति और प्रसन्नता का भाव सहज रूप से स्थायी होने लगता है। वैखरी, मघ्यम को पार करके पश्यन्ति में, मानसी धरातल पर जीने लगता है। बाहर जुड़े रहते हुए भी बेलाग हो जाता है। उसकी कामनाओं की श्रंखला भी टूट जाती है। मन मर जाता है। ह्वदय रूपी अक्षर प्राण-ब्रrाा-विष्णु इन्द्र का स्वरूप दिखाई देते ही एक आह्लाद प्रकट होता है। इसी के सहारे से व्यक्ति स्थायी आनन्द में प्रतिष्ठित हो जाता है।
भागमभाग
जिस रंग का चश्मा
उस रंग का नजारा
पड़ोसन मेरी
बहुत सुंदर थी
आवाज भी सुरीली
लगता था
एक बार तो
दिखती रहे
दिन भर में
बहुत आकर्षण था
उसके रूप में।
पति बोले
एक दिन मुझसे
कैसे मिले शांति
उस कर्कशा से
कैसे छूटे पीछा
उस
भली मानस से
तंग आ गया
मैं तो
गलती भी तो है
मेरी ही
मैं ही
डालता था
डोरे
उसे रिझाने को
बहुत पीछा किया था
अब छटपटा रहा हूं
मैं ही
मुक्त होने को।
वो है कि
कसकर बांध दिया
मुझको
मैं अवाक था
मेरी अवधारणा
संुदरता की
हवा हो गई
वह तो चल पड़ी
किसी और के पीछे
छोड़कर सुख
बाल-बच्चों का
जो न हो सकी
अपने पति की
अपने बच्चों की
क्या होगी
किसी अन्य की ?
इस धरती पर
भोग में डूबी
आंखें
कैसे देखेंगी
धरातल
आत्मा का
नकली निकलता
24 कैरेट का
खरा सोना
18 का हो गया
14 कैरेट का
हो गया
क्या पता
मुलम्मा ही
निकले अंत में
फिर क्यों
भागता रहता है
इंसान
खोट भरने को
जीवन में
छोड़कर सुख
24 कैरेट का
प्रसाद
ईश्वर का
क्यों नहीं चाहता
भोगना
प्रारब्ध को ?
छूट नहीं सकता
भागने से
इसे तो
स्वीकारना होगा
भोगना होगा
यथार्थ मानकर
हंसते हुए।
उस रंग का नजारा
पड़ोसन मेरी
बहुत सुंदर थी
आवाज भी सुरीली
लगता था
एक बार तो
दिखती रहे
दिन भर में
बहुत आकर्षण था
उसके रूप में।
पति बोले
एक दिन मुझसे
कैसे मिले शांति
उस कर्कशा से
कैसे छूटे पीछा
उस
भली मानस से
तंग आ गया
मैं तो
गलती भी तो है
मेरी ही
मैं ही
डालता था
डोरे
उसे रिझाने को
बहुत पीछा किया था
अब छटपटा रहा हूं
मैं ही
मुक्त होने को।
वो है कि
कसकर बांध दिया
मुझको
मैं अवाक था
मेरी अवधारणा
संुदरता की
हवा हो गई
वह तो चल पड़ी
किसी और के पीछे
छोड़कर सुख
बाल-बच्चों का
जो न हो सकी
अपने पति की
अपने बच्चों की
क्या होगी
किसी अन्य की ?
इस धरती पर
भोग में डूबी
आंखें
कैसे देखेंगी
धरातल
आत्मा का
नकली निकलता
24 कैरेट का
खरा सोना
18 का हो गया
14 कैरेट का
हो गया
क्या पता
मुलम्मा ही
निकले अंत में
फिर क्यों
भागता रहता है
इंसान
खोट भरने को
जीवन में
छोड़कर सुख
24 कैरेट का
प्रसाद
ईश्वर का
क्यों नहीं चाहता
भोगना
प्रारब्ध को ?
छूट नहीं सकता
भागने से
इसे तो
स्वीकारना होगा
भोगना होगा
यथार्थ मानकर
हंसते हुए।
सेवा
प्रत्येक व्यक्ति को सौ साल का जीवन मिलता है। यह सौ साल शरीर की औसत आयु होती है। इसमें रहने वाला जीव अपना शरीर बदलता-बदलता इस शरीर में आकर रहने लगता है। उसे अगले सौ वर्ष इस शरीर का उपयोग करते हुए अगले शरीर में जाने की तैयारी करनी होती है अथवा जीवन-मरण के चक्र से बाहर निकलने का प्रयास करना होता है। इन्हीं प्रयासों के आघार पर हम कह सकते हैं कि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही सौ साल का स्वपAलोक है।
इसमें शरीर कार्यरत दिखाई पड़ता है, किन्तु इसको चलाने वाली शक्तियां अदृश्य रहती हैं। सपना जीव देखता है और कार्य शरीर के माघ्यम से मन और बुद्धि करवाते हैं। ये दोनों भी अदृश्य शक्तियां ही हैं। शक्ति का अर्थ है ऎश्वर्य और पराक्रम। सपना कामना है, इच्छा है। पराक्रम क्रिया है और ऎश्वर्य प्राप्ति है। जब व्यक्ति भूखा होता है, तब खाने की इच्छा होती है। लगता है उसकी सारी शक्तियां क्षीण होने लगी हैं। खाना खाते ही एक तृप्ति का अनुभव करता है। यह तृप्ति ही शक्ति कहलाती है। व्यक्ति को आगे प्राप्ति की ओर अग्रसर करती है। घन और प्रशंसा की भूख को तृ# नहीं किया जा सकता। वे तृष्णा रूप में देखी जा सकती हैं।
हमारे सपनों का आघार हमारे कर्म होते हैं। कर्म के आघार पर ही मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। सौ साल तक की यात्रा में मनुष्य पिछले जन्मों के कर्म-फल का ही भोग करता है। इनको टाला नहीं जा सकता। इसी के अनुरूप हमारे मन में इच्छाएं पैदा होती हंै। ये सारी इच्छाएं प्रकृति द्वारा संचालित होती हंै। इसी प्रकार वर्तमान कर्म भी हमारे भविष्य का निर्माण करते हैं। ये इच्छाएं भी उसी मन में उठती हैं। इनमें हमारी इन्द्रियों का और अर्जित ज्ञान का योग रहता है। हमारे चारों ओर के वातावरण का योग रहता है। इसी के अनुरूप हम कर्म करते हैं। इन कर्मो को अथवा इनके फलों को ही स्वपA कहा जाता है। फल चूंकि प्रकृति के हाथ में होते हैं, अत: ये कर्म प्राकृतिक कर्मो से जुड़कर भाग्य का निर्माण करते हैं। अत: फल कब मिलेगा, हम नहीं जानते। इसीलिए कृष्ण कह गए कि फल की इच्छा मत रखो।
कृष्ण की बातें तो गूढ़ होती हैं। ऋषि-मुनि ही पूरी तरह समझ सकते हैं। साघारण व्यक्ति कैसे इस अवघारणा को जीवन में उतारे! इसके लिए भारतीय दर्शन ने दिया पुरूषार्थ यानी घर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनके लिए जीवन के भी चार विभाग किए-ब्रrाचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। इनको व्यक्ति शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के चारों घरातलों पर जीते हुए फल की कामना से बाहर निकल जाता है। पचास के बाद गृहस्थी से निवृत्त होकर सेवा का मार्ग पकड़ लेता है। सेवा का अभ्यास ही जीवन को साघने का सबसे बड़ा मार्ग है। सेवा में केवल देना होता है, लेना कुछ भी नहीं। अर्थात फल की इच्छा कुछ नहीं। जहां देना-लेना साथ रहता है, उसको व्यापार कहा जाता है। हमारे यहां तो कहावत है कि नेकी कर कुएं में डाल। न प्रशंसा चाहिए, न ही प्रचार। सेवा व्यक्ति अपने स्वयं के सुख के लिए करता है। आत्म संतुष्टि के लिए करता है। सेवा के माघ्यम से वह तो अपनी आत्मा का विस्तार देखता है। जिसकी भी सेवा करता है, उसके भीतर अपनी आत्मा का प्रतिबिम्ब देखता है। अपने-पराए के, छोटे-बड़े के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। दोनों एक घरातल पर आ जाते हैं। इसी तरह जीवन में वसुघैव कुटुम्बकम् की अवघारणा मूर्त रूप होती दिखाई पड़ती है।
कहने को तो सेवा तन, मन और घन से की जाती है, किन्तु वास्तविकता यह है कि तन और घन तो साघन मात्र हैं। सेवा हमेशा मन से ही होती है। तन और घन दोनों ही जड़ हैं, निर्जीव हैं। मन चेतन है। मन में ही इच्छा पैदा होती है। यह इच्छा पूर्व कर्मो के कारण भी पैदा हो सकती है और वर्तमान सपनों के आघार पर भी। सेवा में जो कुछ तन-मन-घन लगता है, वह आत्मा का दान कहलाता है। ये सब आत्मा के वित्त अथवा सम्पदा माने गए हैं। अपनी सम्पदा के किसी अंश पर अघिकार छोड़कर अन्य का अघिकार प्रतिष्ठित कर देना दान कहलाता है। अत: सेवा में दान के बदले लिया कुछ नहीं जाता। देने वाला सदा समाज में बड़ा ही माना जाता है।
सेवा कार्य की एक और विशेषता है। सेवा में कोई स्पर्घा नहीं होती। आज हमारा जीवन स्पर्घा से अटा पड़ा है। ईष्र्या भी स्पर्घा ही है। हम स्पर्घा के बाहर कहां जी पाते हैं! आज की शिक्षा भी केवल स्पर्घा ही सिखाती है। चाहे नंबर लाने हो या कैरियर का क्षेत्र हो। स्पर्घा में व्यक्ति नकल करने लगता है। उसका घ्यान सदा दूसरों की गतिविघियों पर रहता है। वह अपनी क्षमताओं को भूलकर दूसरे जैसे कार्य करने का प्रयास करता है। इसका सीघा सा अर्थ है कि व्यक्ति अपने प्राकृतिक स्वरूप से दूर होता जाता है। उसके जीवन से सहजता निकल जाती है। अत: नित नई कठिनाइयों से जूझता है। वह दूसरे जैसा बन भी नहीं पाता और स्वयं के स्वरूप को बिगाड़ लेता है। इस नकली व्यक्तित्व के कारण हर कार्य में फल की अपेक्षा रखता है। जीवन में शरीर और बुद्धि हावी हो जाते हैं। मन की संवेदनाएं दब जाती हैं। उसके सही सपने भी दफन हो जाते हैं। बुद्धि सदा बाहरी ज्ञान पर आश्रित रहती है। भीतर का ज्ञान कभी प्रकट ही नहीं हो पाता। व्यक्ति स्वयं को कैसे देखेगा, यदि स्वयं से दूर जा रहा है! जो ज्ञान लेकर पैदा हुआ, वह तो सौ साल में काम ही नहीं ले पाता। अद्वितीय पैदा हुआ, किंतु आगे नहीं बढ़ा। बुद्धि और बुद्धि के अहंकार ने भीतर झांकने ही नहीं दिया।सेवा व्यक्ति को अर्थ और कामना की मर्यादा सिखाती है। अर्थ का उपभोग घर्म पर आघारित रहता है। व्यक्ति घनी व्यक्ति के बजाए दरिद्र के प्रति समर्पित होने लगता है। उसमें भी उसी ईश्वर का अंश देखता है, जो स्वयं के भीतर जान पड़ता है। इससे बड़ी ईश्वर की भक्ति भी और क्या हो सकती है। सारा अहंकार सेवा भाव के आते ही चूर्ण हो जाता है। सेवा करके जो प्रसन्नता अर्जित करता है, वही उसके जीवन के सपने को पूर्णता देता है। स्वयं कामनाओं से, निर्माण से मुक्त होकर निर्वाण पथ का यात्री बन जाता है।
इसमें शरीर कार्यरत दिखाई पड़ता है, किन्तु इसको चलाने वाली शक्तियां अदृश्य रहती हैं। सपना जीव देखता है और कार्य शरीर के माघ्यम से मन और बुद्धि करवाते हैं। ये दोनों भी अदृश्य शक्तियां ही हैं। शक्ति का अर्थ है ऎश्वर्य और पराक्रम। सपना कामना है, इच्छा है। पराक्रम क्रिया है और ऎश्वर्य प्राप्ति है। जब व्यक्ति भूखा होता है, तब खाने की इच्छा होती है। लगता है उसकी सारी शक्तियां क्षीण होने लगी हैं। खाना खाते ही एक तृप्ति का अनुभव करता है। यह तृप्ति ही शक्ति कहलाती है। व्यक्ति को आगे प्राप्ति की ओर अग्रसर करती है। घन और प्रशंसा की भूख को तृ# नहीं किया जा सकता। वे तृष्णा रूप में देखी जा सकती हैं।
हमारे सपनों का आघार हमारे कर्म होते हैं। कर्म के आघार पर ही मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। सौ साल तक की यात्रा में मनुष्य पिछले जन्मों के कर्म-फल का ही भोग करता है। इनको टाला नहीं जा सकता। इसी के अनुरूप हमारे मन में इच्छाएं पैदा होती हंै। ये सारी इच्छाएं प्रकृति द्वारा संचालित होती हंै। इसी प्रकार वर्तमान कर्म भी हमारे भविष्य का निर्माण करते हैं। ये इच्छाएं भी उसी मन में उठती हैं। इनमें हमारी इन्द्रियों का और अर्जित ज्ञान का योग रहता है। हमारे चारों ओर के वातावरण का योग रहता है। इसी के अनुरूप हम कर्म करते हैं। इन कर्मो को अथवा इनके फलों को ही स्वपA कहा जाता है। फल चूंकि प्रकृति के हाथ में होते हैं, अत: ये कर्म प्राकृतिक कर्मो से जुड़कर भाग्य का निर्माण करते हैं। अत: फल कब मिलेगा, हम नहीं जानते। इसीलिए कृष्ण कह गए कि फल की इच्छा मत रखो।
कृष्ण की बातें तो गूढ़ होती हैं। ऋषि-मुनि ही पूरी तरह समझ सकते हैं। साघारण व्यक्ति कैसे इस अवघारणा को जीवन में उतारे! इसके लिए भारतीय दर्शन ने दिया पुरूषार्थ यानी घर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनके लिए जीवन के भी चार विभाग किए-ब्रrाचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। इनको व्यक्ति शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के चारों घरातलों पर जीते हुए फल की कामना से बाहर निकल जाता है। पचास के बाद गृहस्थी से निवृत्त होकर सेवा का मार्ग पकड़ लेता है। सेवा का अभ्यास ही जीवन को साघने का सबसे बड़ा मार्ग है। सेवा में केवल देना होता है, लेना कुछ भी नहीं। अर्थात फल की इच्छा कुछ नहीं। जहां देना-लेना साथ रहता है, उसको व्यापार कहा जाता है। हमारे यहां तो कहावत है कि नेकी कर कुएं में डाल। न प्रशंसा चाहिए, न ही प्रचार। सेवा व्यक्ति अपने स्वयं के सुख के लिए करता है। आत्म संतुष्टि के लिए करता है। सेवा के माघ्यम से वह तो अपनी आत्मा का विस्तार देखता है। जिसकी भी सेवा करता है, उसके भीतर अपनी आत्मा का प्रतिबिम्ब देखता है। अपने-पराए के, छोटे-बड़े के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। दोनों एक घरातल पर आ जाते हैं। इसी तरह जीवन में वसुघैव कुटुम्बकम् की अवघारणा मूर्त रूप होती दिखाई पड़ती है।
कहने को तो सेवा तन, मन और घन से की जाती है, किन्तु वास्तविकता यह है कि तन और घन तो साघन मात्र हैं। सेवा हमेशा मन से ही होती है। तन और घन दोनों ही जड़ हैं, निर्जीव हैं। मन चेतन है। मन में ही इच्छा पैदा होती है। यह इच्छा पूर्व कर्मो के कारण भी पैदा हो सकती है और वर्तमान सपनों के आघार पर भी। सेवा में जो कुछ तन-मन-घन लगता है, वह आत्मा का दान कहलाता है। ये सब आत्मा के वित्त अथवा सम्पदा माने गए हैं। अपनी सम्पदा के किसी अंश पर अघिकार छोड़कर अन्य का अघिकार प्रतिष्ठित कर देना दान कहलाता है। अत: सेवा में दान के बदले लिया कुछ नहीं जाता। देने वाला सदा समाज में बड़ा ही माना जाता है।
सेवा कार्य की एक और विशेषता है। सेवा में कोई स्पर्घा नहीं होती। आज हमारा जीवन स्पर्घा से अटा पड़ा है। ईष्र्या भी स्पर्घा ही है। हम स्पर्घा के बाहर कहां जी पाते हैं! आज की शिक्षा भी केवल स्पर्घा ही सिखाती है। चाहे नंबर लाने हो या कैरियर का क्षेत्र हो। स्पर्घा में व्यक्ति नकल करने लगता है। उसका घ्यान सदा दूसरों की गतिविघियों पर रहता है। वह अपनी क्षमताओं को भूलकर दूसरे जैसे कार्य करने का प्रयास करता है। इसका सीघा सा अर्थ है कि व्यक्ति अपने प्राकृतिक स्वरूप से दूर होता जाता है। उसके जीवन से सहजता निकल जाती है। अत: नित नई कठिनाइयों से जूझता है। वह दूसरे जैसा बन भी नहीं पाता और स्वयं के स्वरूप को बिगाड़ लेता है। इस नकली व्यक्तित्व के कारण हर कार्य में फल की अपेक्षा रखता है। जीवन में शरीर और बुद्धि हावी हो जाते हैं। मन की संवेदनाएं दब जाती हैं। उसके सही सपने भी दफन हो जाते हैं। बुद्धि सदा बाहरी ज्ञान पर आश्रित रहती है। भीतर का ज्ञान कभी प्रकट ही नहीं हो पाता। व्यक्ति स्वयं को कैसे देखेगा, यदि स्वयं से दूर जा रहा है! जो ज्ञान लेकर पैदा हुआ, वह तो सौ साल में काम ही नहीं ले पाता। अद्वितीय पैदा हुआ, किंतु आगे नहीं बढ़ा। बुद्धि और बुद्धि के अहंकार ने भीतर झांकने ही नहीं दिया।सेवा व्यक्ति को अर्थ और कामना की मर्यादा सिखाती है। अर्थ का उपभोग घर्म पर आघारित रहता है। व्यक्ति घनी व्यक्ति के बजाए दरिद्र के प्रति समर्पित होने लगता है। उसमें भी उसी ईश्वर का अंश देखता है, जो स्वयं के भीतर जान पड़ता है। इससे बड़ी ईश्वर की भक्ति भी और क्या हो सकती है। सारा अहंकार सेवा भाव के आते ही चूर्ण हो जाता है। सेवा करके जो प्रसन्नता अर्जित करता है, वही उसके जीवन के सपने को पूर्णता देता है। स्वयं कामनाओं से, निर्माण से मुक्त होकर निर्वाण पथ का यात्री बन जाता है।
देते रहें
कर्म और भोग
दोनों ही
पर्याय हैं जीवन के
भाग नहीं सकते
भोगना पडेगा
इसी दलदल में
और
उठना भी होगा
इससे ऊपर।
जीवन व्यापार है
लेन-देन है,
कर्म देना है
उल्टा भी होगा
यदि
उलट गए
हमारे भाव।
कुदरत देती है
हम मांगते हैं
ईश्वर देता है
हम मांगते हैं
सीखना पडेगा
हमको भी
देना
यदि बनना है
ईश्वर,
बिना किसी
अपेक्षा भाव के
लेने के लिए,
देना ही होता है
विस्तार आत्मा का,
‘स्व’ का
संकोच बन जाता है
लेना
आत्मा देता है
व्यक्ति नहीं देता
देय वस्तु
होती है
आत्मा का अंग
होता है उस पर
अधिकार हमारा
और
देते समय
हम दे देते हैं
अधिकार भी
साथ में
छोडकर अपना
स्वामित्व-भाव
फिर नहीं करते
कामना
उसे पाने की
वापस
अपने लिए।
जिंदगी
नहीं रहती
फिर व्यापार
देना ही देना
लेना कुछ नहीं,
बन जाता है
भामाशाह
देते रहने वाला,
धन नहीं चाहिए
देने के लिए
तन भी चलेगा
मन भी चलेगा
सेवा भी चलेगी
मिठास भी चलेगा
ताकि
कोई न रहे
वंचित
बनने से
भामाशाह।
कोई आस नहीं
शेष रहे
लेने की
वासना के घेरे की
देते-देते
बन जाए
नारायण
यह मानव देह
लोग मांगते रहें
हम देते रहें।
ईश्वर से लेकर
ईश्वर को ही
न भोग रहे
न कर्म रहे
न जीवन व्यापार।
दोनों ही
पर्याय हैं जीवन के
भाग नहीं सकते
भोगना पडेगा
इसी दलदल में
और
उठना भी होगा
इससे ऊपर।
जीवन व्यापार है
लेन-देन है,
कर्म देना है
उल्टा भी होगा
यदि
उलट गए
हमारे भाव।
कुदरत देती है
हम मांगते हैं
ईश्वर देता है
हम मांगते हैं
सीखना पडेगा
हमको भी
देना
यदि बनना है
ईश्वर,
बिना किसी
अपेक्षा भाव के
लेने के लिए,
देना ही होता है
विस्तार आत्मा का,
‘स्व’ का
संकोच बन जाता है
लेना
आत्मा देता है
व्यक्ति नहीं देता
देय वस्तु
होती है
आत्मा का अंग
होता है उस पर
अधिकार हमारा
और
देते समय
हम दे देते हैं
अधिकार भी
साथ में
छोडकर अपना
स्वामित्व-भाव
फिर नहीं करते
कामना
उसे पाने की
वापस
अपने लिए।
जिंदगी
नहीं रहती
फिर व्यापार
देना ही देना
लेना कुछ नहीं,
बन जाता है
भामाशाह
देते रहने वाला,
धन नहीं चाहिए
देने के लिए
तन भी चलेगा
मन भी चलेगा
सेवा भी चलेगी
मिठास भी चलेगा
ताकि
कोई न रहे
वंचित
बनने से
भामाशाह।
कोई आस नहीं
शेष रहे
लेने की
वासना के घेरे की
देते-देते
बन जाए
नारायण
यह मानव देह
लोग मांगते रहें
हम देते रहें।
ईश्वर से लेकर
ईश्वर को ही
न भोग रहे
न कर्म रहे
न जीवन व्यापार।
बाहरी ज्ञान
आदमी खाता है ठोकरें
अपनी होशियारी
के कारण
मानता है
स्वयं को
अपना भाग्यविधाता
करता है मनमानी
उधार के ज्ञान से
समझ नहीं पाता
लेख
विधाता के।
समझ नहीं पाता
अपनी सीमा को
चाहता है लांघना
सारी मर्यादाएं
कुदरत की,
सुनता भी नहीं
अपने मन की
अंतरआत्मा की।
यही स्वतंत्रता
बदलती है
स्वच्छंदता में,
बन जाती है
कारण
ठोकरों का।
अपनी होशियारी
के कारण
मानता है
स्वयं को
अपना भाग्यविधाता
करता है मनमानी
उधार के ज्ञान से
समझ नहीं पाता
लेख
विधाता के।
समझ नहीं पाता
अपनी सीमा को
चाहता है लांघना
सारी मर्यादाएं
कुदरत की,
सुनता भी नहीं
अपने मन की
अंतरआत्मा की।
यही स्वतंत्रता
बदलती है
स्वच्छंदता में,
बन जाती है
कारण
ठोकरों का।
संकल्प-4
प्रारब्ध भी
देता है
संकल्प और
विकल्प,
बनते हैं भावों से
जुड़कर वर्तमान में,
करते हैं कर्म
पाने को फल
संकल्पित मन से,
दु:ख है
फल का संकल्प
मानव जीवन का,
फल नहीं होता
हमारे हाथ,
कब मिलेगा
कौन जाने,
कितने जनम बाद,
क्यों प्रतीक्षा
करें फल की
मानव
कर्म हजार हैं
जीवन में
संकल्प एक है,
बदलता नहीं,
समय के साथ,
जूझता है
बने रहने को
संकट काल में
हर हाल में,
तभी मिलती है
कीर्ति उसको,
बढ़ता है
यश उसका,
मिलता है सबको
भाग्य से,
संकल्प है तुष्टि
स्पर्द्धा रहित,
ईष्र्या रहित
कामना रहित,
अनूठा हर मानव
अनूठा ही
हर संकल्प,
ईश्वर अंश
अनूठे रूप में।
संकल्प करता है
विकसित
इस अंश को,
जोड़ता है
हर अंश को
प्राणी मात्र को,
विकसित होती है
उत्कृष्टता जीवन की,
सेवा, भक्ति रूप
मातृभाव से।
नारी अग्रणी है
संकल्प की,
वही करती है
संकल्पित
पुरूष्ा को भी,
बना देती है
उध्र्वमुखी,
शीतल करके
उसका अहं भाव।
बना देती है
उसे सृष्टा
ब्रह्मा की तरह
और बन जाते हैं
आकाश-वायु
अगिA-आदित्य
आगे से आगे,
हर मोड़ पर
मिलता है सोम
अगिA को
बढ़ जाता है
यज्ञ आगे
संकल्प से।
दो धाराएं
संकल्प की भी
युगल सृष्टि जैसे
देव भी-असुर भी
देश की सतियां
बनी सभी
संकल्प से
रहने को साथ
पति के
मरते दम तक,
आज की नारी
संकल्पित है
भारत की
जीने को
पति के घर में
मरते दम तक,
हर हाल में
क्योंकि
नर्क बना देता
विकल्प
जीवन को
सीमा नहीं कोई
विकल्प की,
नहीं दिशा कोई,
टूट जाता है
स्थायी भाव
जीवन का,
कहां रहती है
सुरक्षा
खतरों से,
असुरों से,
फिर रह जाता
मातृ गृह मात्र
आश्रय जीवन का,
वह भी तब
जब न हो
अन्य कोई
रहता वहां
पश्चिम की तरह,
बुढ़ापे में
अकेली नार
साथ उसके
अकेली पुत्री
और
नाती उसके
काटते भर हैं
उम्र के दिन
रीत जाता है
सुख
बिखर जाते हैं
सपने सारे,
संजोए हुए
अरमान
एक हठ से
अभिनिवेश से,
जो नहीं करती
स्वीकार
यथार्थ को,
देती है चुनौती
कुदरत को
ठुकराकर
सारा सम्मान
व्यवस्था का,
भूल जाती है
संकल्प अपना
समर्पण का,
भूल जाती है
आना-जाना
जीवन का
केवल नारी का,
नर नहीं जाता
नारी घर,
नहीं छोड़ता
अपना घर
किसी भी हाल में,
सृष्टि बस
भ्रमण है
नारी का, माया का
वही क्रिया है
वही शक्ति है
संकल्प है
विश्व सृजन का,
वही बनाती है
संस्कृति
इस धरती की
मानवता की,
वही लूटती है
भोग सारा
वही कुचलती है
अहंकार नर का,
बना दे संतान
असुर जैसी,
पशु भाव में,
वही लील जाएगी
सारी मानवता,
कर देगी शून्य
धरती को
मनुष्य योनि से,
अपने संकल्प से।
तभी पूजते हैं
नारी को
विश्व भर में
प्रसन्न रखते हैं
ताकि न डोले
उसका संकल्प
न बन जाए
दुर्गा कहीं,
फिर क्या बचेगा
किसी के लिए।
देता है
संकल्प और
विकल्प,
बनते हैं भावों से
जुड़कर वर्तमान में,
करते हैं कर्म
पाने को फल
संकल्पित मन से,
दु:ख है
फल का संकल्प
मानव जीवन का,
फल नहीं होता
हमारे हाथ,
कब मिलेगा
कौन जाने,
कितने जनम बाद,
क्यों प्रतीक्षा
करें फल की
मानव
कर्म हजार हैं
जीवन में
संकल्प एक है,
बदलता नहीं,
समय के साथ,
जूझता है
बने रहने को
संकट काल में
हर हाल में,
तभी मिलती है
कीर्ति उसको,
बढ़ता है
यश उसका,
मिलता है सबको
भाग्य से,
संकल्प है तुष्टि
स्पर्द्धा रहित,
ईष्र्या रहित
कामना रहित,
अनूठा हर मानव
अनूठा ही
हर संकल्प,
ईश्वर अंश
अनूठे रूप में।
संकल्प करता है
विकसित
इस अंश को,
जोड़ता है
हर अंश को
प्राणी मात्र को,
विकसित होती है
उत्कृष्टता जीवन की,
सेवा, भक्ति रूप
मातृभाव से।
नारी अग्रणी है
संकल्प की,
वही करती है
संकल्पित
पुरूष्ा को भी,
बना देती है
उध्र्वमुखी,
शीतल करके
उसका अहं भाव।
बना देती है
उसे सृष्टा
ब्रह्मा की तरह
और बन जाते हैं
आकाश-वायु
अगिA-आदित्य
आगे से आगे,
हर मोड़ पर
मिलता है सोम
अगिA को
बढ़ जाता है
यज्ञ आगे
संकल्प से।
दो धाराएं
संकल्प की भी
युगल सृष्टि जैसे
देव भी-असुर भी
देश की सतियां
बनी सभी
संकल्प से
रहने को साथ
पति के
मरते दम तक,
आज की नारी
संकल्पित है
भारत की
जीने को
पति के घर में
मरते दम तक,
हर हाल में
क्योंकि
नर्क बना देता
विकल्प
जीवन को
सीमा नहीं कोई
विकल्प की,
नहीं दिशा कोई,
टूट जाता है
स्थायी भाव
जीवन का,
कहां रहती है
सुरक्षा
खतरों से,
असुरों से,
फिर रह जाता
मातृ गृह मात्र
आश्रय जीवन का,
वह भी तब
जब न हो
अन्य कोई
रहता वहां
पश्चिम की तरह,
बुढ़ापे में
अकेली नार
साथ उसके
अकेली पुत्री
और
नाती उसके
काटते भर हैं
उम्र के दिन
रीत जाता है
सुख
बिखर जाते हैं
सपने सारे,
संजोए हुए
अरमान
एक हठ से
अभिनिवेश से,
जो नहीं करती
स्वीकार
यथार्थ को,
देती है चुनौती
कुदरत को
ठुकराकर
सारा सम्मान
व्यवस्था का,
भूल जाती है
संकल्प अपना
समर्पण का,
भूल जाती है
आना-जाना
जीवन का
केवल नारी का,
नर नहीं जाता
नारी घर,
नहीं छोड़ता
अपना घर
किसी भी हाल में,
सृष्टि बस
भ्रमण है
नारी का, माया का
वही क्रिया है
वही शक्ति है
संकल्प है
विश्व सृजन का,
वही बनाती है
संस्कृति
इस धरती की
मानवता की,
वही लूटती है
भोग सारा
वही कुचलती है
अहंकार नर का,
बना दे संतान
असुर जैसी,
पशु भाव में,
वही लील जाएगी
सारी मानवता,
कर देगी शून्य
धरती को
मनुष्य योनि से,
अपने संकल्प से।
तभी पूजते हैं
नारी को
विश्व भर में
प्रसन्न रखते हैं
ताकि न डोले
उसका संकल्प
न बन जाए
दुर्गा कहीं,
फिर क्या बचेगा
किसी के लिए।
संकल्प-3
जीवन चलाती है
माया ही
नर-नारी में,
किन्तु अलग हैं
धरातल उनके,
नर जीता है
बुद्धि से
जो आती है
सूर्य से, महत् से,
अहंकार से
उष्ण होती है
तोड़ती है अग्नि
स्वाभाव से,
शरीर अग्नि है,
ह्वदय प्राण
अग्नि हैं तीनों,
इन्हें चाहिए
संकल्प
शीतल रहने का
सहने का,
सहयोग चाहिए
सौम्या का,
स्त्रेह का
जो प्रेरित करे
मृदुता-माधुर्य
भीतर का।
अग्नि मांगती है
भोग-अन्न-सोम
चलने को
जीवन यज्ञ,
शरीर लेता है
अन्न
बनी रहे
जठराग्नि जिससे,
मन चाहता
शीतलता
मिठास की,
ह्वदय को चाहिए
सोम्य प्राण,
सभी त्रिगुणी हैं,
ढंके हैं
सत-रज-तम से,
अलग-अलग है
अन्न इनका,
अलग-अलग भाव
इन्द्रियों के,
अलग-अलग हैं
विषय भी,
आंख मे है
गहराई,
चमक-ज्योति
मन की,
करूणा है, दया है
अश्रु है
रंजन भी होता है
कटाक्ष भी
चपलता भी,
देखती नहीं खुद
उपकरण है
मन का,
जैसे शरीर है
उपकरण स्वयं
ईश्वर का,
जुड़े रहते हैं
एक-दूजे से
श्रद्धा सूत्र से
संकल्प से।
संकल्प ही
चमकता है
आंखों में,
प्रेम बनकर,
वही करता है
रक्तिम नेत्र
रौद्र बनकर,
यही तोड़ता है
आवरण भी
योगमाया के
माया भाव से।
नीति आती है
संकल्प से,
यही मार्ग है
चतुराई का,
वाणी संयम का
शब्द ब्राह् का,
इच्छा बनती है
प्रत्यक्ष, कार्य रूप
प्रवाहित करके
प्राणों को,
आकाश, वायु
अग्नि , जल
सभी चलते
संकल्प से,
करते हैं
सृष्टि विस्तार
और प्रलय भी
ईश्वर संकल्प से।
माया ही
तोड़ती है
संकल्प सारे
सम्मोहन से,
श्गार से
कटाक्ष से
काटने को सिर
मधु-कैटभ के,
सम्मोहन
अविद्या है,
अज्ञान है,
आसक्ति है,
राग-द्वेष है
अस्मिता है,
अभिनिवेश है
तोड़ते हैं ये
सारे शुभ संकल्प
सम्मोहन से।
माया ही है
विद्या रूप
ज्ञान रूप
धर्म-ज्ञान
वैराग्य-ऎश्वर्य
इनके सहारे
विजय पाता है
संकल्प
सम्मोहन से,
बदलता है
प्रिय को,
प्रवाह को
व्यसन को
अधोगति को,
यथार्थ में
सहजता में
प्रकृत रूप में
न कोई प्रिय,
न ही अप्रिय,
जो जैसा है
वैसा है।
संकल्प तोड़ता
बेडियां स्मृति की,
अतीत की
बाहर लाता है
निकालकर
श्मशान से
मरे हुए काल से,
संकल्प रोकता है
उड़ने से
आकाश में
बिना पंखों के,
अनागत की
कल्पनाओं में,
विकल्प है
स्मृतियां और
कल्पनाएं,
जीवन संकल्प है,
वर्तमान है।
संकल्प बनाता
व्यक्तित्व
फिर बनाता
हजारों को
संकल्पवान
निर्मित करता
राष्ट्र को,
नेतृत्व है
यह तो,
गुरू है
आधार है
शिखर है,
रोक लेता है
जाने से
रसातल में,
देता है साहस
चढ़ने का,
न थकने का,
शरीर की तरह
मन की तरह
कहां थकते हैं,
चांद-तारे,
अव्यय सारे,
निर्विकल्प है
जीवन इनका,
मानव थकता है
विकल्पों से,
भागता है दूर
अपने आप से,
ईश्वर से
जो बैठा है
उसके भीतर
और ढूंढ़ता है
विकल्प उसके
बाहरी जगत में,
जैसे दे रहा हो
ईश्वर धक्का
उसको
अपने से दूर।
माया ही
नर-नारी में,
किन्तु अलग हैं
धरातल उनके,
नर जीता है
बुद्धि से
जो आती है
सूर्य से, महत् से,
अहंकार से
उष्ण होती है
तोड़ती है अग्नि
स्वाभाव से,
शरीर अग्नि है,
ह्वदय प्राण
अग्नि हैं तीनों,
इन्हें चाहिए
संकल्प
शीतल रहने का
सहने का,
सहयोग चाहिए
सौम्या का,
स्त्रेह का
जो प्रेरित करे
मृदुता-माधुर्य
भीतर का।
अग्नि मांगती है
भोग-अन्न-सोम
चलने को
जीवन यज्ञ,
शरीर लेता है
अन्न
बनी रहे
जठराग्नि जिससे,
मन चाहता
शीतलता
मिठास की,
ह्वदय को चाहिए
सोम्य प्राण,
सभी त्रिगुणी हैं,
ढंके हैं
सत-रज-तम से,
अलग-अलग है
अन्न इनका,
अलग-अलग भाव
इन्द्रियों के,
अलग-अलग हैं
विषय भी,
आंख मे है
गहराई,
चमक-ज्योति
मन की,
करूणा है, दया है
अश्रु है
रंजन भी होता है
कटाक्ष भी
चपलता भी,
देखती नहीं खुद
उपकरण है
मन का,
जैसे शरीर है
उपकरण स्वयं
ईश्वर का,
जुड़े रहते हैं
एक-दूजे से
श्रद्धा सूत्र से
संकल्प से।
संकल्प ही
चमकता है
आंखों में,
प्रेम बनकर,
वही करता है
रक्तिम नेत्र
रौद्र बनकर,
यही तोड़ता है
आवरण भी
योगमाया के
माया भाव से।
नीति आती है
संकल्प से,
यही मार्ग है
चतुराई का,
वाणी संयम का
शब्द ब्राह् का,
इच्छा बनती है
प्रत्यक्ष, कार्य रूप
प्रवाहित करके
प्राणों को,
आकाश, वायु
अग्नि , जल
सभी चलते
संकल्प से,
करते हैं
सृष्टि विस्तार
और प्रलय भी
ईश्वर संकल्प से।
माया ही
तोड़ती है
संकल्प सारे
सम्मोहन से,
श्गार से
कटाक्ष से
काटने को सिर
मधु-कैटभ के,
सम्मोहन
अविद्या है,
अज्ञान है,
आसक्ति है,
राग-द्वेष है
अस्मिता है,
अभिनिवेश है
तोड़ते हैं ये
सारे शुभ संकल्प
सम्मोहन से।
माया ही है
विद्या रूप
ज्ञान रूप
धर्म-ज्ञान
वैराग्य-ऎश्वर्य
इनके सहारे
विजय पाता है
संकल्प
सम्मोहन से,
बदलता है
प्रिय को,
प्रवाह को
व्यसन को
अधोगति को,
यथार्थ में
सहजता में
प्रकृत रूप में
न कोई प्रिय,
न ही अप्रिय,
जो जैसा है
वैसा है।
संकल्प तोड़ता
बेडियां स्मृति की,
अतीत की
बाहर लाता है
निकालकर
श्मशान से
मरे हुए काल से,
संकल्प रोकता है
उड़ने से
आकाश में
बिना पंखों के,
अनागत की
कल्पनाओं में,
विकल्प है
स्मृतियां और
कल्पनाएं,
जीवन संकल्प है,
वर्तमान है।
संकल्प बनाता
व्यक्तित्व
फिर बनाता
हजारों को
संकल्पवान
निर्मित करता
राष्ट्र को,
नेतृत्व है
यह तो,
गुरू है
आधार है
शिखर है,
रोक लेता है
जाने से
रसातल में,
देता है साहस
चढ़ने का,
न थकने का,
शरीर की तरह
मन की तरह
कहां थकते हैं,
चांद-तारे,
अव्यय सारे,
निर्विकल्प है
जीवन इनका,
मानव थकता है
विकल्पों से,
भागता है दूर
अपने आप से,
ईश्वर से
जो बैठा है
उसके भीतर
और ढूंढ़ता है
विकल्प उसके
बाहरी जगत में,
जैसे दे रहा हो
ईश्वर धक्का
उसको
अपने से दूर।
भाग्य की लकीरें
दूर बैठे भी
मां जानती है
बच्चे के हालात
बाप नहीं जानता।
बच्चा
खाना खाते ही
कह उठता है
“मां ने बनाया है।”
यही शक्ति है
मनुष्य जीवन की।
यही बसती है
आत्मा
इस देश की
इसको आज
लील गया
पश्चिम का आवरण
दबकर रह गया
हमारा मन
हमें भी नहीं पड़ता
दिखाई
हम देखते हैं
केवल इच्छा को
बनाते रहते हैं
भाग्य अपना
इन्हीं इच्छाओं से
यही प्रवाह
गिराता है
हमारे जीवन को
एक गहरे सागर में,
खो बैठते हैं
अपना अस्तित्व।
बन जाते हैं
खार-खार
अमृत की तलाश में।
जीवन चल नहीं सकता
भाग्य के भरोसे।
भाग्य की पहेली
एक ही भाग है
जीवन का
पिछले कमो का।
ज्योतिषी
बता देता है
क्या आने वाला है,
भाग्य क्योंकि
तय हो जाता है,
जन्म के पहले ही।
दर्पण है
भाग्य तो
हमारे अतीत का।
भाग्य
नहीं होता
वर्तमान हमारा।
नहीं बनाता है
भविष्य की रेखाएं।
ज्योतिषी
नहीं बदल सकता
भाग्य की लकीरें
हम ही बदल सकते हैं
उनको
कुछ कर्म करके
वर्तमान में
वही बनेगा
हमारा भाग्य
नए जीवन काल में।
बिना कर्म किए
नहीं मिलती
भोग योनि भी।
मां जानती है
बच्चे के हालात
बाप नहीं जानता।
बच्चा
खाना खाते ही
कह उठता है
“मां ने बनाया है।”
यही शक्ति है
मनुष्य जीवन की।
यही बसती है
आत्मा
इस देश की
इसको आज
लील गया
पश्चिम का आवरण
दबकर रह गया
हमारा मन
हमें भी नहीं पड़ता
दिखाई
हम देखते हैं
केवल इच्छा को
बनाते रहते हैं
भाग्य अपना
इन्हीं इच्छाओं से
यही प्रवाह
गिराता है
हमारे जीवन को
एक गहरे सागर में,
खो बैठते हैं
अपना अस्तित्व।
बन जाते हैं
खार-खार
अमृत की तलाश में।
जीवन चल नहीं सकता
भाग्य के भरोसे।
भाग्य की पहेली
एक ही भाग है
जीवन का
पिछले कमो का।
ज्योतिषी
बता देता है
क्या आने वाला है,
भाग्य क्योंकि
तय हो जाता है,
जन्म के पहले ही।
दर्पण है
भाग्य तो
हमारे अतीत का।
भाग्य
नहीं होता
वर्तमान हमारा।
नहीं बनाता है
भविष्य की रेखाएं।
ज्योतिषी
नहीं बदल सकता
भाग्य की लकीरें
हम ही बदल सकते हैं
उनको
कुछ कर्म करके
वर्तमान में
वही बनेगा
हमारा भाग्य
नए जीवन काल में।
बिना कर्म किए
नहीं मिलती
भोग योनि भी।
संगीत
हमारी सृष्टि आकाश से होती है। आकाश की तन्मात्रा नाद है। अत: सम्पूर्ण सृष्टि का विकास ही नाद से होता है। नाद से ही ध्वनि बनती है। ध्वनि तरंगों की लयबद्धता को ही संगीत कहते हैं। ध्वनि के क्रम विशेष को (लय को) स्पन्दनों के द्वारा ही अनुभव किया जाता है। सभी प्रकार की ध्वनियां स्पन्दन से ही प्रभाव डालती हैं, अत: संगीत का प्रभाव भी स्पन्दन रूप ही होता है।
ध्वनि, नाद, शब्द, स्वर आदि वाक् कहलाते हैं। सरस्वती को वाग्देवी के नाम से जाना जाता है। लक्ष्मी अर्थवाक् की देवी है। दोनों ही प्रकार की वाक् नाद से ही उत्पन्न होती हैं। हमारा शरीर भी नाद के स्पन्दनों से ही बनता है। शरीर, इन्द्रियां, बुद्धि, मन, आत्मा आदि सभी के मध्य ये ध्वनि स्पन्दन सेतु का कार्य करते हैं। अत: संगीत और हमारे अध्यात्म का सीधा संबंध है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में संगीत को उपासना और भक्ति का अभिन्न अंग माना गया है।
ध्वनि, गति, दिशा आदि को प्राकृतिक क्रम में लयबद्ध करके भारतीय संगीत का यह विकास देखा जाता है। संगीत श्रम भी है, शिल्प भी है और कला भी। खड़े होकर जब कोई बच्चा गाने लगता है, तब उसे श्रम कहा जाता है। उसे तो बस आज्ञा का पालन करने के लिए गाना है। जब संगीत का गठन किया जाए, सुर-ताल-लय में स्वरूप दिया जाए, तब यह शिल्प रूप होता है। लेकिन संगीत को जब मनोभावों की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में काम लिया जाए, तब संगीत कला बन जाता है। कला रूप होने के बाद ही संगीत श्रोता के मन को छू सकता है। प्रभावित कर सकता है। तब गायक और श्रोता एकाकार हो जाते हैं। शरीर और बुद्धि शिथिल हो जाते हैं, मन खो जाता है। व्यक्ति कुछ समय के लिए आत्मस्थ हो जाता है। इसी का नाम भक्ति संगीत है। भारतीय संगीत में एकल गायन की परम्परा भक्ति संगीत की देन है। इसमें ऊर्जा है, उष्मा है, प्रकाश है। चेतना जागरण का मार्ग प्रशस्त होता है।
भारतीय संगीत सत्वगुण प्रधान है। रजो गुण इसको गति देता है। इससे ही प्राणों में स्पन्दन उठता है। आकाश का नाद संगीत में बदल जाता है। इसी आधार पर हमारी मंत्र जप की परम्परा चलती है। व्यक्ति वाचिक जप से शुरू होता है, उपांशु से होते हुए मानस जप में उतरता है। इसमें आकाश और ध्वनि घटते जाते हैं। आगे चलकर आकाश लुप्त हो जाता है और व्यक्ति बिंदु भाव में प्रवेश कर जाता है।
भारतीय संगीत में ध्वनि की निरन्तरता रहती है। इसी से मन तक पहुंचता है। आज के पाश्चात्य संगीत में निरन्तरता नहीं है। अत: वह शरीर और बुद्धि के आगे प्रभावित नहीं करता। समझने की बात यह है कि हमारा शरीर ध्वनि से बनता है। गर्भावस्था में शिशु ध्वनि के माध्यम से ही ज्ञान प्राप्त करता है। अभिमन्यु का उदाहरण हमारे सामने है। हमारे शरीर में जो ऊर्जा केन्द्र हैं, जिन्हें हम चक्र कहते हैं, वे भी स्पन्दन रूप में ही आकाश से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। इन पर हमारे भावों और विचारों के स्पन्दनों का भी प्रभाव पड़ता है। उसी तरह का शरीर बनता है। प्रकृति से जुड़ा रहता है। अत: संगीत जीवन को प्रभावी करने वाला शक्तिशाली माध्यम है। व्यक्तित्व में परिवर्तन लाने का सशक्त माध्यम है। आज तो संगीत केवल मनोरंजन का साधन बनकर रह गया। इसका भी शरीर पर प्रभाव तो पड़ेगा ही। आवश्यकता है संगीत के सकारात्मक उपयोग की। इसके लिए आस्था ही एकमात्र सूत्र है। इसके बिना नाद ब्रह्म की साधना संभव नहीं। इसी साधना से ऊर्जा को पदार्थ में बदला जा सकता है। वर्षा हो सकती है। प्राकृतिक शक्तियों का और भीतर के ईश्वरीय अंश का विकास हो सकता है। संगीत के स्पन्दन भीतर आत्मा को छूते रहें, यह आवश्यक है। जीवन यापन एक बात है, साधना दूसरा मार्ग है। इस मार्ग पर आपको कभी यह अभाव महसूस नहीं होगा कि आपके पास दृष्टि नहीं है। संगीत साधना में आपको जो नजर आएगा, अन्य किसी को नहीं आएगा।
ध्वनि, नाद, शब्द, स्वर आदि वाक् कहलाते हैं। सरस्वती को वाग्देवी के नाम से जाना जाता है। लक्ष्मी अर्थवाक् की देवी है। दोनों ही प्रकार की वाक् नाद से ही उत्पन्न होती हैं। हमारा शरीर भी नाद के स्पन्दनों से ही बनता है। शरीर, इन्द्रियां, बुद्धि, मन, आत्मा आदि सभी के मध्य ये ध्वनि स्पन्दन सेतु का कार्य करते हैं। अत: संगीत और हमारे अध्यात्म का सीधा संबंध है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में संगीत को उपासना और भक्ति का अभिन्न अंग माना गया है।
ध्वनि, गति, दिशा आदि को प्राकृतिक क्रम में लयबद्ध करके भारतीय संगीत का यह विकास देखा जाता है। संगीत श्रम भी है, शिल्प भी है और कला भी। खड़े होकर जब कोई बच्चा गाने लगता है, तब उसे श्रम कहा जाता है। उसे तो बस आज्ञा का पालन करने के लिए गाना है। जब संगीत का गठन किया जाए, सुर-ताल-लय में स्वरूप दिया जाए, तब यह शिल्प रूप होता है। लेकिन संगीत को जब मनोभावों की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में काम लिया जाए, तब संगीत कला बन जाता है। कला रूप होने के बाद ही संगीत श्रोता के मन को छू सकता है। प्रभावित कर सकता है। तब गायक और श्रोता एकाकार हो जाते हैं। शरीर और बुद्धि शिथिल हो जाते हैं, मन खो जाता है। व्यक्ति कुछ समय के लिए आत्मस्थ हो जाता है। इसी का नाम भक्ति संगीत है। भारतीय संगीत में एकल गायन की परम्परा भक्ति संगीत की देन है। इसमें ऊर्जा है, उष्मा है, प्रकाश है। चेतना जागरण का मार्ग प्रशस्त होता है।
भारतीय संगीत सत्वगुण प्रधान है। रजो गुण इसको गति देता है। इससे ही प्राणों में स्पन्दन उठता है। आकाश का नाद संगीत में बदल जाता है। इसी आधार पर हमारी मंत्र जप की परम्परा चलती है। व्यक्ति वाचिक जप से शुरू होता है, उपांशु से होते हुए मानस जप में उतरता है। इसमें आकाश और ध्वनि घटते जाते हैं। आगे चलकर आकाश लुप्त हो जाता है और व्यक्ति बिंदु भाव में प्रवेश कर जाता है।
भारतीय संगीत में ध्वनि की निरन्तरता रहती है। इसी से मन तक पहुंचता है। आज के पाश्चात्य संगीत में निरन्तरता नहीं है। अत: वह शरीर और बुद्धि के आगे प्रभावित नहीं करता। समझने की बात यह है कि हमारा शरीर ध्वनि से बनता है। गर्भावस्था में शिशु ध्वनि के माध्यम से ही ज्ञान प्राप्त करता है। अभिमन्यु का उदाहरण हमारे सामने है। हमारे शरीर में जो ऊर्जा केन्द्र हैं, जिन्हें हम चक्र कहते हैं, वे भी स्पन्दन रूप में ही आकाश से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। इन पर हमारे भावों और विचारों के स्पन्दनों का भी प्रभाव पड़ता है। उसी तरह का शरीर बनता है। प्रकृति से जुड़ा रहता है। अत: संगीत जीवन को प्रभावी करने वाला शक्तिशाली माध्यम है। व्यक्तित्व में परिवर्तन लाने का सशक्त माध्यम है। आज तो संगीत केवल मनोरंजन का साधन बनकर रह गया। इसका भी शरीर पर प्रभाव तो पड़ेगा ही। आवश्यकता है संगीत के सकारात्मक उपयोग की। इसके लिए आस्था ही एकमात्र सूत्र है। इसके बिना नाद ब्रह्म की साधना संभव नहीं। इसी साधना से ऊर्जा को पदार्थ में बदला जा सकता है। वर्षा हो सकती है। प्राकृतिक शक्तियों का और भीतर के ईश्वरीय अंश का विकास हो सकता है। संगीत के स्पन्दन भीतर आत्मा को छूते रहें, यह आवश्यक है। जीवन यापन एक बात है, साधना दूसरा मार्ग है। इस मार्ग पर आपको कभी यह अभाव महसूस नहीं होगा कि आपके पास दृष्टि नहीं है। संगीत साधना में आपको जो नजर आएगा, अन्य किसी को नहीं आएगा।
छटपटाहट
फूटती है जब
दबी हुई
प्रतिक्रिया
विस्फोट होता है
जीवन में
बंधक बनी
नारी
छटपटाने लगी
स्वतंत्र होने को
इस संघर्ष में
लड़ते-लड़ते
हो गई
आक्रामक अनायास,
झपट पड़ती है
अवसर मिलते ही
आदमी पर
लहूलुहान हो जाता है
आदमी
उसे नहीं आता
पलटवार
नई सदी की नार
आदमी को ठोकर मार
चल पड़ती है
अगले मुकाम को।
यहीं से हो जाता है
शुरू तांडव
उसके जीवन में
शिवजी की तरह
नाप लेती है
धरती
लक्ष्यहीन बनकर
प्यासी, अतृप्त सी,
सारी मृदुला
पथरा जाती है
सपने बुन नहीं पाती
किसी एक के सहारे
मृगतृष्णा
मिट नहीं पाती
बंद हो जाते हैं
ह्वदय कपाट
बंद हो जाता है
क्रंदन
भीतर ही।
क्या कहे
किससे कहे
लगाकर मुखौटा
तलाशती रहती है
उन आंखों को
जो
झांक सके भीतर
उसके मन तक
दुलार सके
उसकी भूलों को
बांट सके
दर्द उसका
कर सके हल्का
उसके जी को
वरना
यह प्यास
भटकाएगी उसे
फिर से
जनम-जनम।
दबी हुई
प्रतिक्रिया
विस्फोट होता है
जीवन में
बंधक बनी
नारी
छटपटाने लगी
स्वतंत्र होने को
इस संघर्ष में
लड़ते-लड़ते
हो गई
आक्रामक अनायास,
झपट पड़ती है
अवसर मिलते ही
आदमी पर
लहूलुहान हो जाता है
आदमी
उसे नहीं आता
पलटवार
नई सदी की नार
आदमी को ठोकर मार
चल पड़ती है
अगले मुकाम को।
यहीं से हो जाता है
शुरू तांडव
उसके जीवन में
शिवजी की तरह
नाप लेती है
धरती
लक्ष्यहीन बनकर
प्यासी, अतृप्त सी,
सारी मृदुला
पथरा जाती है
सपने बुन नहीं पाती
किसी एक के सहारे
मृगतृष्णा
मिट नहीं पाती
बंद हो जाते हैं
ह्वदय कपाट
बंद हो जाता है
क्रंदन
भीतर ही।
क्या कहे
किससे कहे
लगाकर मुखौटा
तलाशती रहती है
उन आंखों को
जो
झांक सके भीतर
उसके मन तक
दुलार सके
उसकी भूलों को
बांट सके
दर्द उसका
कर सके हल्का
उसके जी को
वरना
यह प्यास
भटकाएगी उसे
फिर से
जनम-जनम।
बेडियां
बहुत अच्छा
लग रहा था
वह
पहली ही मुलाकात में,
चंचल मन
चाह रहा था
लपकना
बाद में भी
किए थे प्रयास
मैंने ही
उसे रिझाने के
अपनी अदाओं से
अपने श्रृंगार से
हंसी-गाथाओं से
सिनेमा की तरह
अभिनेत्री बनकर।
प्रशंसा करती थी
उसकी, मुक्त-कंठ से
मानती थी
उसकी हर बात
पी लेती थी
एक-दो घूंट भी
उसके साथ।
मम्मी कहती थी
बदल रही हूं मैं
शायद कोई
मिल गया मुझको
टालती रही
हर जवाब को
जैसे कुछ हुआ न हो।
अनायास
एक दिन
आया वो
नशे में धुत
बांह से खींचा
कमरे की ओर
मैं चीखी
किंतु भीतर
एक द्वंद्व भी था
चाहती भी रही हूं
इसी कमबख्त को
इतने काल से,
प्रतीक्षा रही थी
इसी दिन की भी
ताकि बन सकूं
मां
उसके बच्चे की,
किंतु सोचा ना था
ऎसा भी आएगा
मनहूस दिन,
लड़ना भी चाहा
हाथ उठे नहीं
भवानी की तरह
रोक पाने को
उसकी बढ़त
आधी हां, आधी ना,
में ही फंसी
चीखने का प्रयास
काम नहीं आया
और कुछ करती
इसके पहले ही
किसी ने बंद किया
मेरा मुंह
और कर दिया
उसे काला।
आज मैं
सिहर जाती हूं
आदमी के नाम से,
सिनेमा की तरह
घूम जाती है
सारी घटना
मेरी आंखों के आगे
देखती हूं
सूनी आंखें
मां के चेहरे पर
रोती हूं
अपने इस
औरत होने पर।
बच सकती थी
शायद
यदि रहती
मर्यादा में
बताती रहती
मां को भी
हर दिन की दास्तान।
नहीं रहती
इतनी स्वच्छंद
लड़कों की तरह
प्रवाह में पड़कर
नहीं सौंपती
अपनी धरोहर
किसी निर्लज्ज को
रोक सकती यदि
अपने इशारे
नादानी के
उसे रिझाने के,
नहीं करती
दुरूपयोग
स्वतंत्रता का।
इतनी बड़ी सजा
कैसे कटेगी
पूरी उम्रभर
क्या होगा
कोसते रहने से
आदमी को,
जीना भी पड़ेगा
उसी के साथ
बच नहीं पाऊंगी
संभव नहीं लौटाना
जो सब चला गया
नहीं बन पाऊंगी
अल्हड़,
पहले जैसी
स्वच्छंदता ही
बन गई हैं
बेडियां मेरी
मुक्ति की तलाश में।
लग रहा था
वह
पहली ही मुलाकात में,
चंचल मन
चाह रहा था
लपकना
बाद में भी
किए थे प्रयास
मैंने ही
उसे रिझाने के
अपनी अदाओं से
अपने श्रृंगार से
हंसी-गाथाओं से
सिनेमा की तरह
अभिनेत्री बनकर।
प्रशंसा करती थी
उसकी, मुक्त-कंठ से
मानती थी
उसकी हर बात
पी लेती थी
एक-दो घूंट भी
उसके साथ।
मम्मी कहती थी
बदल रही हूं मैं
शायद कोई
मिल गया मुझको
टालती रही
हर जवाब को
जैसे कुछ हुआ न हो।
अनायास
एक दिन
आया वो
नशे में धुत
बांह से खींचा
कमरे की ओर
मैं चीखी
किंतु भीतर
एक द्वंद्व भी था
चाहती भी रही हूं
इसी कमबख्त को
इतने काल से,
प्रतीक्षा रही थी
इसी दिन की भी
ताकि बन सकूं
मां
उसके बच्चे की,
किंतु सोचा ना था
ऎसा भी आएगा
मनहूस दिन,
लड़ना भी चाहा
हाथ उठे नहीं
भवानी की तरह
रोक पाने को
उसकी बढ़त
आधी हां, आधी ना,
में ही फंसी
चीखने का प्रयास
काम नहीं आया
और कुछ करती
इसके पहले ही
किसी ने बंद किया
मेरा मुंह
और कर दिया
उसे काला।
आज मैं
सिहर जाती हूं
आदमी के नाम से,
सिनेमा की तरह
घूम जाती है
सारी घटना
मेरी आंखों के आगे
देखती हूं
सूनी आंखें
मां के चेहरे पर
रोती हूं
अपने इस
औरत होने पर।
बच सकती थी
शायद
यदि रहती
मर्यादा में
बताती रहती
मां को भी
हर दिन की दास्तान।
नहीं रहती
इतनी स्वच्छंद
लड़कों की तरह
प्रवाह में पड़कर
नहीं सौंपती
अपनी धरोहर
किसी निर्लज्ज को
रोक सकती यदि
अपने इशारे
नादानी के
उसे रिझाने के,
नहीं करती
दुरूपयोग
स्वतंत्रता का।
इतनी बड़ी सजा
कैसे कटेगी
पूरी उम्रभर
क्या होगा
कोसते रहने से
आदमी को,
जीना भी पड़ेगा
उसी के साथ
बच नहीं पाऊंगी
संभव नहीं लौटाना
जो सब चला गया
नहीं बन पाऊंगी
अल्हड़,
पहले जैसी
स्वच्छंदता ही
बन गई हैं
बेडियां मेरी
मुक्ति की तलाश में।
संकल्प-2
http://inlinethumb14.webshots.com/45197/2273831820099927749S600x600Q85.jpg
रस तो सदा है
संकल्प रूपी,
नीरस ही होते
विकल्प सारे।
इसी रस से
गढ़ती है
मूरत सजन की
बना देती उसको
छवि प्रियतम की,
देती है आकार
शिला को जैसे
बनकर हथौड़ी
कलाकार जैसी,
तभी निखरता है
रूप उसका,
घर के बाहर
बनती है पहचान,
चलता है
अपनी ड़गर पर
होता है तब
संकल्पित
मन उसका भी।
लुटाने लगता है
वह भी प्रेम
बदले में,
छूटने लगता है
अहंकार
उसका भी
छंट जाते हैं
विकल्पों के बादल,
पाता है
पूर्णता की मधुरता,
स्वपिल जीवन,
एक नई आस
नया क्षितिज
और एक नया
जीवन साथी।
छोड़कर मनमानी,
बहना प्रवाह में
अपनाता मर्यादा
होता है लज्जित
गलत काम करके,
यह लज्जा ही
बनती है
संकल्प घर का,
रोकती है ये
पशुभाव से
अविद्या
के योग से
अधंकार प्रवेश से,
यही तो है
संकल्प पत्नी का,
प्रवेश कर गया
पति-ह्वदय में।
इसी ने रोका
अधोगति को,
गिरने से नीचे,
इसी से बनी
सीढ़ी
उठने को ऊपर,
इसी से उपजा
रति भाव मन में,
इसी ने किया मुक्त
पितृ ऋणों से।
संकल्प बोला
गर्भस्थ शिशु से
आना है तुमको
बनकर एक मानव,
तुम्हे बनना माली
इस परिवार का
करने हैं पूरे
सपने संसार के।
बिना संकल्प
कहां मानव मिलेगा,
किसी एक घर में,
नहीं उतरेगा
कोई देव
इस देह में
बनने को मानव,
जीने उस घर में
सौ साल तक,
वहां तो पशु हैं,
असुर हैं
क्लेश हैं तैयार
आने को
नर शरीर में,
जीने को
स्वच्छन्द रहकर।
उन्हें रोकता यह
संकल्प पत्नी का,
बना देती
उसको मानव
जन्म से पहले,
जन्म बाद में
करती है
दीक्षित उसे
परम्पराओं में
विरासत में,
देखती रहती है
पहचान अपनी
उसके भविष्य में,
बनाती उसे
प्रतिबिम्ब अपना,
रखने को सदा
गर्व से सिर ऊंचा।
सोचो, क्या हो
यदि टूट जाए
यह संकल्प
जीवन का,
कौन-सा संकल्प
बड़ा होगा इससे
क्या होगी दशा
उस मन की
जो दौड़ता है
विकल्पों के पीछे,
कौन-सा संकल्प
बच पाएगा
उसके मन में,
कैसे बनेगा
मन पटु उसका,
बहता रहेगा
एक प्रवाह बनकर,
हवा के संग-संग
किसके सहारे
टिकेगा भवन
यदि कमजोर होगी
नींव संकल्प की,
खण्ड़हर ही होगा
बस जीवन सारा,
कैसे लौट पाएगा
कोई “अपने घर को”
जहां से चला था
84 लाख चक्कर
पशु भाव से
आता है जीव
मानव बनकर
जीकर मर्यादा में
और छोड़कर
सारी मर्यादाएं
बन जाता है
फिर से पशु,
शुरू होगा क्रम
आने-जाने का
फिर से।
कैसे जी गए
पहले के लोग
इस संकल्प से
न शिक्षा थी
न चकाचौंध ऎसी,
शरीर था ऎसा ही,
क्या बदला फिर
जमाने में ऎसा,
व्यक्ति भूल बैठा
सार इस जन्म का,
अटका ही रहा
अर्थ में
देह की खातिर
नश्वर हैं दोनों
कहां चेतना है,
तभी तो पशु है
नया आदमी
सुप्त चेतना लिए
चल रहा नींद में
पता नहीं कहां।
जागरण के लिए
चाहिए नया
संकल्प मन का,
छिपा है यह तो
शक्ति बनकर
भीतर सबके,
माया है यही तो,
त्रिगुण बनी है,
तोड़ना है बन्धन
इसी के जगत में,
जीवन के सुख-दुख
इसी के बनाए,
पिछले जन्म का भी
लेखा दिखाए,
संकल्प जोड़े,
संकल्प तोड़े,
संकल्प सहजता,
प्रखरता,
विश्वास बनता
यही स्वयं पर,
तभी करता है
शासन जगत पर,
क्यों दोष देना
कभी भी किसी को
यदि न हो
संकल्प,
विश्वास खुद पर
वही दिखता है
दूसरे मुख पर
प्रतिबिम्ब पर,
लौटते हैं
स्पन्दन हमारे ही
व्यवहार बनकर
पास अपने।
संकल्प करता है
शिकार किसी का,
यही कराता है
समर्पण भी जग में,
यही एक बूता है
जीवन में सबको
जिसके सहारे
जीता है मानव
पकड़कर इसे ही
जीवन के पथ पर।
बिना संकल्प
कैसे निभेगा रिश्ता
कैसे बंधेगा
कोई किसी से
दोनों ही मुक्त
एक-दूसरे से,
दृष्टि बस तन तक,
अर्थ पर हो
बुद्धि,
छलांगें लगाए
मन-उपवन में,
तृष्णा ही तृष्णा
ईष्र्या ही ईष्र्या,
नशा ही नशा
गफलत ही गफलत,
कहां आश्रम
कोई जीवन में
ठहरे,
कहां धर्म की
कोई पहचान होती,
आसक्ति छाए
चारों दिशा में
परिग्रह बनकर
पशुभाव घेरे
चारों तरफ बस
अंधेरे-अंधेरे,
ना कोई बचता
मातृत्व मन में
ना कोई रहता
मानव इस तन में।
छूट जाते सारे
यश-कीर्ति भी,
भाव सारे ही
लोक हित के।
रस तो सदा है
संकल्प रूपी,
नीरस ही होते
विकल्प सारे।
इसी रस से
गढ़ती है
मूरत सजन की
बना देती उसको
छवि प्रियतम की,
देती है आकार
शिला को जैसे
बनकर हथौड़ी
कलाकार जैसी,
तभी निखरता है
रूप उसका,
घर के बाहर
बनती है पहचान,
चलता है
अपनी ड़गर पर
होता है तब
संकल्पित
मन उसका भी।
लुटाने लगता है
वह भी प्रेम
बदले में,
छूटने लगता है
अहंकार
उसका भी
छंट जाते हैं
विकल्पों के बादल,
पाता है
पूर्णता की मधुरता,
स्वपिल जीवन,
एक नई आस
नया क्षितिज
और एक नया
जीवन साथी।
छोड़कर मनमानी,
बहना प्रवाह में
अपनाता मर्यादा
होता है लज्जित
गलत काम करके,
यह लज्जा ही
बनती है
संकल्प घर का,
रोकती है ये
पशुभाव से
अविद्या
के योग से
अधंकार प्रवेश से,
यही तो है
संकल्प पत्नी का,
प्रवेश कर गया
पति-ह्वदय में।
इसी ने रोका
अधोगति को,
गिरने से नीचे,
इसी से बनी
सीढ़ी
उठने को ऊपर,
इसी से उपजा
रति भाव मन में,
इसी ने किया मुक्त
पितृ ऋणों से।
संकल्प बोला
गर्भस्थ शिशु से
आना है तुमको
बनकर एक मानव,
तुम्हे बनना माली
इस परिवार का
करने हैं पूरे
सपने संसार के।
बिना संकल्प
कहां मानव मिलेगा,
किसी एक घर में,
नहीं उतरेगा
कोई देव
इस देह में
बनने को मानव,
जीने उस घर में
सौ साल तक,
वहां तो पशु हैं,
असुर हैं
क्लेश हैं तैयार
आने को
नर शरीर में,
जीने को
स्वच्छन्द रहकर।
उन्हें रोकता यह
संकल्प पत्नी का,
बना देती
उसको मानव
जन्म से पहले,
जन्म बाद में
करती है
दीक्षित उसे
परम्पराओं में
विरासत में,
देखती रहती है
पहचान अपनी
उसके भविष्य में,
बनाती उसे
प्रतिबिम्ब अपना,
रखने को सदा
गर्व से सिर ऊंचा।
सोचो, क्या हो
यदि टूट जाए
यह संकल्प
जीवन का,
कौन-सा संकल्प
बड़ा होगा इससे
क्या होगी दशा
उस मन की
जो दौड़ता है
विकल्पों के पीछे,
कौन-सा संकल्प
बच पाएगा
उसके मन में,
कैसे बनेगा
मन पटु उसका,
बहता रहेगा
एक प्रवाह बनकर,
हवा के संग-संग
किसके सहारे
टिकेगा भवन
यदि कमजोर होगी
नींव संकल्प की,
खण्ड़हर ही होगा
बस जीवन सारा,
कैसे लौट पाएगा
कोई “अपने घर को”
जहां से चला था
84 लाख चक्कर
पशु भाव से
आता है जीव
मानव बनकर
जीकर मर्यादा में
और छोड़कर
सारी मर्यादाएं
बन जाता है
फिर से पशु,
शुरू होगा क्रम
आने-जाने का
फिर से।
कैसे जी गए
पहले के लोग
इस संकल्प से
न शिक्षा थी
न चकाचौंध ऎसी,
शरीर था ऎसा ही,
क्या बदला फिर
जमाने में ऎसा,
व्यक्ति भूल बैठा
सार इस जन्म का,
अटका ही रहा
अर्थ में
देह की खातिर
नश्वर हैं दोनों
कहां चेतना है,
तभी तो पशु है
नया आदमी
सुप्त चेतना लिए
चल रहा नींद में
पता नहीं कहां।
जागरण के लिए
चाहिए नया
संकल्प मन का,
छिपा है यह तो
शक्ति बनकर
भीतर सबके,
माया है यही तो,
त्रिगुण बनी है,
तोड़ना है बन्धन
इसी के जगत में,
जीवन के सुख-दुख
इसी के बनाए,
पिछले जन्म का भी
लेखा दिखाए,
संकल्प जोड़े,
संकल्प तोड़े,
संकल्प सहजता,
प्रखरता,
विश्वास बनता
यही स्वयं पर,
तभी करता है
शासन जगत पर,
क्यों दोष देना
कभी भी किसी को
यदि न हो
संकल्प,
विश्वास खुद पर
वही दिखता है
दूसरे मुख पर
प्रतिबिम्ब पर,
लौटते हैं
स्पन्दन हमारे ही
व्यवहार बनकर
पास अपने।
संकल्प करता है
शिकार किसी का,
यही कराता है
समर्पण भी जग में,
यही एक बूता है
जीवन में सबको
जिसके सहारे
जीता है मानव
पकड़कर इसे ही
जीवन के पथ पर।
बिना संकल्प
कैसे निभेगा रिश्ता
कैसे बंधेगा
कोई किसी से
दोनों ही मुक्त
एक-दूसरे से,
दृष्टि बस तन तक,
अर्थ पर हो
बुद्धि,
छलांगें लगाए
मन-उपवन में,
तृष्णा ही तृष्णा
ईष्र्या ही ईष्र्या,
नशा ही नशा
गफलत ही गफलत,
कहां आश्रम
कोई जीवन में
ठहरे,
कहां धर्म की
कोई पहचान होती,
आसक्ति छाए
चारों दिशा में
परिग्रह बनकर
पशुभाव घेरे
चारों तरफ बस
अंधेरे-अंधेरे,
ना कोई बचता
मातृत्व मन में
ना कोई रहता
मानव इस तन में।
छूट जाते सारे
यश-कीर्ति भी,
भाव सारे ही
लोक हित के।
संकल्प-1
न जाने कितने
पर्याय होते हैं
जीवन के,
किन्तु एक पर्याय
होता है
सभी के केन्द्र में,
वह है संकल्प।
संकल्प
स्वीकृति है
कामना की,
दिशा है
भावना की,
सूचना है
क्रिया की
और लक्ष्य है
अनागत का,
अदृश्य का
अनियंत्रित का,
अंधकार में
प्रकाश पाने का,
खोजने को शक्ति
भीतर की,
कृष्ण के अंश की,
प्रस्फुटित करने को
जिसे
अपने संकल्प से।
सहारा है
जीवन का
एक ही,
जो चलता है
साथ उम्रभर,
वही साहस है,
शस्त्र है,
प्रकाश है
पथ का
जीवन यात्रा में।
संकल्प ही
बनाता है शक्तिमान
व्यक्ति को,
बनकर
इसकी शक्ति,
क्षुधा है
संकल्प,
रखने को गतिमान
जीवन चक्र को,
शेष नकली है
सहयात्री
नहीं देते साथ
वक्त आने पर
संकल्प की तरह,
इसी के बूते
काट देता है
पूरी उम्र आदमी।
नहीं होता मन
संकल्पित
आसानी से,
चंचल है
भगाती हैं इन्द्रियां
उसे यहां-वहां,
इधर-उधर
बहाने को
एक प्रवाह में,
भटकता रहता है
आदमी सौ साल,
नहीं मिलता
लक्ष्य कोई।
कौन करता
संकल्पित मन को
बड़ा प्रश्न है
कौन चलाता
जीवन व्यापार
माया
महामाया
यानी प्रकृति,
वही प्रवृत्ति है
निवृत्ति वही है
वही संकल्प है,
करने का भी,
न करने का
चलाती है
शक्तिमान को
भाख्य के द्वारा।
जैसे पत्नी
चलाती है
पति के जीवन को
विवाह के बाद।
वह भी तो
आती है
नए घर में
किसी संकल्प से
कौन आता है
जीने को
उसके साथ
इस घर में
संकल्प,
उसका अपना संकल्प!
वही होता है
आत्म-विश्वास
जीने को
हर हाल में।
चलता भी है
जीवन
समय के साथ,
और बदलता भी
कर्म अनुरूप ,
ज्ञान के द्वारा,
तब जूझता है
विकल्पों से
जीवन भर।
उसका जीवन
संकल्प है बस
वही परिचय
वही स्वरूप
उसका
वही बनाता है
पत्नी, माता
वही मांगता है
संतान
उस प्रभु से
वही मित्र बनकर
सदा साथ देता।
वही तो क्षुधा है
जीवन में नर की
वही शक्ति,
वही लक्ष्मी है
वही तृप्ति है,
तृष्णा वही है
वही तो धुरी है
हर परिजन की,
वही खूंटा है
पति देव का भी
बंधा है जो
स्त्रेह की पकड़ से
जरा सोचो क्या हो
हिले यदि खूंटा,
ढ़ह जाए घर
विकल्पों के मारे
टूट जाएं
जीवन सहारे।
संकल्प ही है
सपनों का जीवन,
उसी में छिपी है
गहनता
प्रेम रस की
वही करता प्रेरित
देने को सब कुछ
न चाहिए उसको
बदले में कुछ भी,
बनाना नहीं है
व्यापारी खुद को।
मनुज रहता
क्षुद्र
जन्म से ही,
आधा-अधूरा
चना-दाल जैसा,
उसे पूर्णता देता
संकल्प नारी का
पत्नी बनकर।
किसने सिखाया
उसको प्रेम करना
किसने जगाया
उसका पौरूष
किसने दिशा दी
जीवन को उसके,
चलाया उसे
नई जीवन ड़गर पर
प्रकाश बनकर
संकल्पित
माया भाव ने,
कर लिया उसको
आवरित चहुं ओर
बन्द कमरे-सा,
ड़ुबा दिया
प्रेम सागर में
उसको
भर गया मन
उसका भी
इसी प्रेम रस से,
जो मिलता नहीं
कभी
किसी विकल्प में।
पर्याय होते हैं
जीवन के,
किन्तु एक पर्याय
होता है
सभी के केन्द्र में,
वह है संकल्प।
संकल्प
स्वीकृति है
कामना की,
दिशा है
भावना की,
सूचना है
क्रिया की
और लक्ष्य है
अनागत का,
अदृश्य का
अनियंत्रित का,
अंधकार में
प्रकाश पाने का,
खोजने को शक्ति
भीतर की,
कृष्ण के अंश की,
प्रस्फुटित करने को
जिसे
अपने संकल्प से।
सहारा है
जीवन का
एक ही,
जो चलता है
साथ उम्रभर,
वही साहस है,
शस्त्र है,
प्रकाश है
पथ का
जीवन यात्रा में।
संकल्प ही
बनाता है शक्तिमान
व्यक्ति को,
बनकर
इसकी शक्ति,
क्षुधा है
संकल्प,
रखने को गतिमान
जीवन चक्र को,
शेष नकली है
सहयात्री
नहीं देते साथ
वक्त आने पर
संकल्प की तरह,
इसी के बूते
काट देता है
पूरी उम्र आदमी।
नहीं होता मन
संकल्पित
आसानी से,
चंचल है
भगाती हैं इन्द्रियां
उसे यहां-वहां,
इधर-उधर
बहाने को
एक प्रवाह में,
भटकता रहता है
आदमी सौ साल,
नहीं मिलता
लक्ष्य कोई।
कौन करता
संकल्पित मन को
बड़ा प्रश्न है
कौन चलाता
जीवन व्यापार
माया
महामाया
यानी प्रकृति,
वही प्रवृत्ति है
निवृत्ति वही है
वही संकल्प है,
करने का भी,
न करने का
चलाती है
शक्तिमान को
भाख्य के द्वारा।
जैसे पत्नी
चलाती है
पति के जीवन को
विवाह के बाद।
वह भी तो
आती है
नए घर में
किसी संकल्प से
कौन आता है
जीने को
उसके साथ
इस घर में
संकल्प,
उसका अपना संकल्प!
वही होता है
आत्म-विश्वास
जीने को
हर हाल में।
चलता भी है
जीवन
समय के साथ,
और बदलता भी
कर्म अनुरूप ,
ज्ञान के द्वारा,
तब जूझता है
विकल्पों से
जीवन भर।
उसका जीवन
संकल्प है बस
वही परिचय
वही स्वरूप
उसका
वही बनाता है
पत्नी, माता
वही मांगता है
संतान
उस प्रभु से
वही मित्र बनकर
सदा साथ देता।
वही तो क्षुधा है
जीवन में नर की
वही शक्ति,
वही लक्ष्मी है
वही तृप्ति है,
तृष्णा वही है
वही तो धुरी है
हर परिजन की,
वही खूंटा है
पति देव का भी
बंधा है जो
स्त्रेह की पकड़ से
जरा सोचो क्या हो
हिले यदि खूंटा,
ढ़ह जाए घर
विकल्पों के मारे
टूट जाएं
जीवन सहारे।
संकल्प ही है
सपनों का जीवन,
उसी में छिपी है
गहनता
प्रेम रस की
वही करता प्रेरित
देने को सब कुछ
न चाहिए उसको
बदले में कुछ भी,
बनाना नहीं है
व्यापारी खुद को।
मनुज रहता
क्षुद्र
जन्म से ही,
आधा-अधूरा
चना-दाल जैसा,
उसे पूर्णता देता
संकल्प नारी का
पत्नी बनकर।
किसने सिखाया
उसको प्रेम करना
किसने जगाया
उसका पौरूष
किसने दिशा दी
जीवन को उसके,
चलाया उसे
नई जीवन ड़गर पर
प्रकाश बनकर
संकल्पित
माया भाव ने,
कर लिया उसको
आवरित चहुं ओर
बन्द कमरे-सा,
ड़ुबा दिया
प्रेम सागर में
उसको
भर गया मन
उसका भी
इसी प्रेम रस से,
जो मिलता नहीं
कभी
किसी विकल्प में।
पशुभाव है
कर्म
ज्ञान के बिना
ज्ञान भी
बन जाता है
विष
बिना उपयोग के।
पैदा किसने किया
अज्ञान को
कौन करता है
इसको विकसित
फिर भी होता है
बहुत बडा
ज्ञान से
असीम-अनंत।
सर्वाधिक त्रस्त
होते हैं ज्ञानी ही
अज्ञान से
ज्ञान के अहंकार से
दुत्कारते हैं
अपने ही कर्मोü को
आगे चलकर
साहस नहीं होता
स्वीकार करने का।
जैसे कि
मुझे पसंद आई
एक लडकी
प्यार हो गया
मन भी
तैयार हो गया
करने को शादी
लगने लगी
सबसे सुंदर
दुनिया भर में
भाती नहीं
कोई भी दूसरी
जवाब दे दिया
बुद्धि ने भी
हम मान गए।
मान गए
मां-बाप भी
दोनों के
वे तो
करते भी क्या
बस गया
घर हमारा
सुंदर-सा।
कुछ काल बाद
गूंजने लगी
किलकारियां
देर कहां लगती है
गुजर जाने में
अच्छे दिनों को,
और फिर
शुरू हो गए
विवाद-संवाद
नित नए तेवर
नित नए विषय
कभी पीहर
कभी ससुराल
कभी बच्चे
सूखने लगे कंठ
पछताने लगा मन।
सुना था
शादी के लaू
खाओ और पछताओ
नहीं खाओ
तो भी पछताओ।
पडने लगा भारी
हर दिन
कटती नहीं रातें
होने लगा
बीमार, शरीर भी
चिंतित हो उठे
परिजन-स्वजन
फिर एक दिन
तय कर लिया
अलग होना
दोनों ने।
लगा, मिल गया
मार्ग
सुखी रहने का।
पिताजी ने पूछा
विश्व सुंदरी
आज बन गई है
विष-कन्या
किसके साथ रहकर
वाह, रे ईश्वर
जड दिया
मेरे ही गाल पर
उठा,
लगा दिया सिंदूर
फिर से
पत्नी के भाल पर।
कर्म
ज्ञान के बिना
ज्ञान भी
बन जाता है
विष
बिना उपयोग के।
पैदा किसने किया
अज्ञान को
कौन करता है
इसको विकसित
फिर भी होता है
बहुत बडा
ज्ञान से
असीम-अनंत।
सर्वाधिक त्रस्त
होते हैं ज्ञानी ही
अज्ञान से
ज्ञान के अहंकार से
दुत्कारते हैं
अपने ही कर्मोü को
आगे चलकर
साहस नहीं होता
स्वीकार करने का।
जैसे कि
मुझे पसंद आई
एक लडकी
प्यार हो गया
मन भी
तैयार हो गया
करने को शादी
लगने लगी
सबसे सुंदर
दुनिया भर में
भाती नहीं
कोई भी दूसरी
जवाब दे दिया
बुद्धि ने भी
हम मान गए।
मान गए
मां-बाप भी
दोनों के
वे तो
करते भी क्या
बस गया
घर हमारा
सुंदर-सा।
कुछ काल बाद
गूंजने लगी
किलकारियां
देर कहां लगती है
गुजर जाने में
अच्छे दिनों को,
और फिर
शुरू हो गए
विवाद-संवाद
नित नए तेवर
नित नए विषय
कभी पीहर
कभी ससुराल
कभी बच्चे
सूखने लगे कंठ
पछताने लगा मन।
सुना था
शादी के लaू
खाओ और पछताओ
नहीं खाओ
तो भी पछताओ।
पडने लगा भारी
हर दिन
कटती नहीं रातें
होने लगा
बीमार, शरीर भी
चिंतित हो उठे
परिजन-स्वजन
फिर एक दिन
तय कर लिया
अलग होना
दोनों ने।
लगा, मिल गया
मार्ग
सुखी रहने का।
पिताजी ने पूछा
विश्व सुंदरी
आज बन गई है
विष-कन्या
किसके साथ रहकर
वाह, रे ईश्वर
जड दिया
मेरे ही गाल पर
उठा,
लगा दिया सिंदूर
फिर से
पत्नी के भाल पर।
http://img3.imageshack.us/img3/77/24ab0661a4480597d9d31aa.jpg
कि मां कहती है
लडका अच्छा है
मेरा मान करता है
मित्रता चाहता है
किंतु डरती हूं
मैं
आगे बढने से
जानती नहीं
कौन है वो
वह भी नहीं जानता
मैं कौन हूं-कैसी हूं
फिर भी अच्छा तो
लगता है।
पहले भी हो चुका
ऎसा ही
एक बार
अच्छा लगा था
एक प्यार।
मिलते थे
कई संदेश
प्यार भरे
किंतु बादल थे
बरसाती
छंट गए
बहुत जल्दी
शादी की चर्चा
उसे नहीं सुहाई
जब वह आया
मुझे मिलने
साथ उसके
एक और कन्या आई
कह रही थी
हम करने वाले हैं
शादी, जल्दी ही।
अपनी भूल
मैं चिंतित हो गई
उसके लिए
आज फिर
खडी हूं
उसी दोराहे पर,
जाना भी चाहती हूं
किसी की गोद में
मिलते भी हैं
प्यार करने वाले
किंतु,
एक प्रश्न
उठता है बार-बार,
क्या कभी भी
बन सकूंगी
किसी के बच्चे की
मां
क्या हो सकेगी
मेरी भी
छोटी-सी गृहस्थी
क्या होगा
कभी मेरा मन संतुष्ट
इस सदी के रिवाज
कुछ अलग हैं
आदमी
नहीं बदलता
अपनी जगह
और औरतें
लुढकती रहती हैं
इनके हाथों में।
यही कहानी है
विकासवाद की
समानता की
समृद्धि की।
औरत रूक जाती है
कहानी ठहर जाती है
अकेले जीने की जगह
मर जाने की
याद आती है।
कि मां कहती है
लडका अच्छा है
मेरा मान करता है
मित्रता चाहता है
किंतु डरती हूं
मैं
आगे बढने से
जानती नहीं
कौन है वो
वह भी नहीं जानता
मैं कौन हूं-कैसी हूं
फिर भी अच्छा तो
लगता है।
पहले भी हो चुका
ऎसा ही
एक बार
अच्छा लगा था
एक प्यार।
मिलते थे
कई संदेश
प्यार भरे
किंतु बादल थे
बरसाती
छंट गए
बहुत जल्दी
शादी की चर्चा
उसे नहीं सुहाई
जब वह आया
मुझे मिलने
साथ उसके
एक और कन्या आई
कह रही थी
हम करने वाले हैं
शादी, जल्दी ही।
अपनी भूल
मैं चिंतित हो गई
उसके लिए
आज फिर
खडी हूं
उसी दोराहे पर,
जाना भी चाहती हूं
किसी की गोद में
मिलते भी हैं
प्यार करने वाले
किंतु,
एक प्रश्न
उठता है बार-बार,
क्या कभी भी
बन सकूंगी
किसी के बच्चे की
मां
क्या हो सकेगी
मेरी भी
छोटी-सी गृहस्थी
क्या होगा
कभी मेरा मन संतुष्ट
इस सदी के रिवाज
कुछ अलग हैं
आदमी
नहीं बदलता
अपनी जगह
और औरतें
लुढकती रहती हैं
इनके हाथों में।
यही कहानी है
विकासवाद की
समानता की
समृद्धि की।
औरत रूक जाती है
कहानी ठहर जाती है
अकेले जीने की जगह
मर जाने की
याद आती है।
Thursday, December 31, 2009
केवल परनिंदा सुने, नहीं सुने गुणगान।
दीवारों के पास हैं, जाने कैसे कान ।।
सूफी संत चले गए, सब जंगल की ओर।
मंदिर मस्जिद में मिले, रंग बिरंगे चोर ।।
सफल वही है आजकल, वही हुआ सिरमौर।
जिसकी कथनी और है, जिसकी करनी और।।
हमको यह सुविधा मिली, पार उतरने हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।
जंगल जंगल आज भी, नाच रहे हैं मोर।
लेकिन बस्ती में मिले, घर घर आदमखोर।।
हर कोई हमको मिला, पहने हुए नकाब।
किसको अब अच्छा कहें, किसको कहें खराब।।
सुख सुविधा के कर लिये, जमा सभी सामान।
कौड़ी पास न प्रेम की, बनते है धनवान ।।
चाहे मालामाल हो चाहे हो कंगाल ।
हर कोई कहता मिला, दुनिया है जंजाल।।
राजनीति का व्याकरण, कुर्सीवाला पाठ।
पढ़ा रहे हैं सब हमें, सोलह दूनी आठ।।
मन से जो भी भेंट दे, उसको करो कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।
सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।
एक स्वाती की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही
घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,
ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,
राह पापा की तकती रही बेटीयाँ.
छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,
छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,
खुशबू बन के महकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,
अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,
कहते-कहते झिझकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेतीयाँ
इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,
इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,
राह चलते सहमती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,
ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,
राह पापा की तकती रही बेटीयाँ.
छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,
छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,
खुशबू बन के महकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,
अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,
कहते-कहते झिझकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेतीयाँ
इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,
इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,
राह चलते सहमती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
दो भाई
दो भाई, दोनों अलबेले
एक ही आँगन में वो
खेले एक सा माँ ने उनको पाला
एक ही सांचे में था
ढाला साथ साथ बढ़ते जाते हैं
फिर जीवन में फंस जाते
हैं राह अलग सी हो लेती है
माँ याद करे-फिर रो लेती है.
दोनों की वो सुध लेती है
उनके सुख से सुख लेती
है फिर देखा संदेशा आता
दोनों को वो साथ रुलाता.
माँ इस जग को छोड़ चली है
दोनों से मुख मोड़ चली है
दोनों का दिल जोड़ रहा था
वो सेतु ही तोड़ चली है.
शांत हुई जो चिता जली थी
यादों की बस एक गली थी
पूजा पाठ औ' सब काम हो गये
अब जाने की बात चली थी.
दोनों फिर निकले-जाते हैं,
फिर जीवन में फंस जाते हैं.
रहा नहीं अब रोने
वाला देखो, कब फिर मिल पाते हैं.
एक ही आँगन में वो
खेले एक सा माँ ने उनको पाला
एक ही सांचे में था
ढाला साथ साथ बढ़ते जाते हैं
फिर जीवन में फंस जाते
हैं राह अलग सी हो लेती है
माँ याद करे-फिर रो लेती है.
दोनों की वो सुध लेती है
उनके सुख से सुख लेती
है फिर देखा संदेशा आता
दोनों को वो साथ रुलाता.
माँ इस जग को छोड़ चली है
दोनों से मुख मोड़ चली है
दोनों का दिल जोड़ रहा था
वो सेतु ही तोड़ चली है.
शांत हुई जो चिता जली थी
यादों की बस एक गली थी
पूजा पाठ औ' सब काम हो गये
अब जाने की बात चली थी.
दोनों फिर निकले-जाते हैं,
फिर जीवन में फंस जाते हैं.
रहा नहीं अब रोने
वाला देखो, कब फिर मिल पाते हैं.
गरज-बरस प्यासी धरती पर
फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने, बच्चों को
गुड़धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा
चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी
नादानी दे मौला
फिर रौशन कर ज़हर का प्याला
चमका नयी सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को
ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आकर
चारों ओर बिखर जा
फिर मन्दिर को कोई मीरा
दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किसी की
जान का दुश्मन क्यों हो
जीनेवालों को मरने की
आसानी दे मौला
खुशियों भरा संसार दे, नव वर्ष की पहली किरण
आनंद का उपहार दे, नव वर्ष की पहली किरण
दुनिया की अंधी दौड़ में, कुछ दिल्लगी के पल मिले
सबको ही अनुपम प्यार दें, नव वर्ष की पहली किरण
जर्जर हुए बदले अधर, नव वर्ष की पहली किरण
नव चेतना, दे नया स्वर, नव वर्ष की पहली किरण
अब आ चढ़ें नव कर्म रथ पर हर चिरंतन साधना
इस बुद्धि को कर दे प्रखर, नव वर्ष की पहली किरण
सबको अटल विश्वास दे, नव वर्ष की पहली किरण
नव देह में नव श्वास दे, नव वर्ष की पहली किरण
इस अवनि तल पर उतरकर, अब कर दे रौशन ये फिज़ा
उल्लास ही उल्लास दे, नव वर्ष की पहली किरण
अब आ रही है मनोरम, नव वर्ष की पहली किरण
यह चीरती अज्ञान तम, नव वर्ष की पहली किरण
मैं छंद तुझ पर क्या लिखूँ 'अद्भुत' कहूँ इतना ही बस।
सुस्वागतम सुस्वागतम, नव वर्ष की पहली किरण
Tuesday, December 29, 2009
NEW YEAR 2010
विपदा से हारा नहीं झेला उसे सहर्ष
तूफ़ानों को पार कर पहुँचा है नववर्ष
नभ मौसम सागर सभी करें कृपा करतार
जंग और आतंक की पड़े कभी ना मार
बागों में खिलते रहें इंद्रधनुष के रंग
घर घर में बसता रहे खुशियों का मकरंद
मन में हो संवेदना तन में नव स्फूर्ति
अपनों में सदभावना जग में सुंदर कीर्ति
उन्नति का परचम उड़े ऐसा करें विकास
संस्कार की नींव पर जमा रहे विश्वास
साल नया गुलज़ार हो–मिटें सभी के दर्द
मेहनत से हम झाड़ दें गए साल की गर्द
अभिनंदन नव वर्ष का मंगलमय हो साल
ऋद्धि सिद्धि सुख संपदा सबसे रहें निहाल
केवल परनिंदा सुने, नहीं सुने गुणगान।
दीवारों के पास हैं, जाने कैसे कान ।।
सूफी संत चले गए, सब जंगल की ओर।
मंदिर मस्जिद में मिले, रंग बिरंगे चोर ।।
सफल वही है आजकल, वही हुआ सिरमौर।
जिसकी कथनी और है, जिसकी करनी और।।
हमको यह सुविधा मिली, पार उतरने हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।
जंगल जंगल आज भी, नाच रहे हैं मोर।
लेकिन बस्ती में मिले, घर घर आदमखोर।।
हर कोई हमको मिला, पहने हुए नकाब।
किसको अब अच्छा कहें, किसको कहें खराब।।
सुख सुविधा के कर लिये, जमा सभी सामान।
कौड़ी पास न प्रेम की, बनते है धनवान ।।
चाहे मालामाल हो चाहे हो कंगाल ।
हर कोई कहता मिला, दुनिया है जंजाल।।
राजनीति का व्याकरण, कुर्सीवाला पाठ।
पढ़ा रहे हैं सब हमें, सोलह दूनी आठ।।
मन से जो भी भेंट दे, उसको करो कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।
सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।
एक स्वाती की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
हमउम्र
ज़िंदगी खेलती है
पर हमउम्रों से...
कविता खेलती है
बराबर के शब्दों से, ख़यालों से
पर अर्थ खेल नहीं बनते
ज़िंदगी बन जाते हैं...
रात-दिन रिश्ते भी खेलते हैं
सिर्फ़ मनचाहों से
उम्रें कोई भी हों
ज़िंदगी में मनचाहे रिश्ते
अपने आप हमउम्र हो जाते हैं.
तेरा भला करे
अमृता जब भी खुश होती-
मेरी छोटी-छोटी बातों पर
तो वो कहती-
वे रब तेरा भला करे।
और मैं जवाब में कहता हूँ-
मेरा भला तो
कर भी दिया रब ने
तेरी सूरत में
आकर...
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