
"है एक ही ग़ज़ल मगर.. लमहे अलग-अलग,
कोई इसे गुल, कोई शमशीर बनाये.'
'काँटो की चुभन से हैं.. मुसाफ़िर बड़े वाक़िफ़ !!!
ये शाख बबूलों की, भला कौन हटाये??'
'सोया है मुद्दतों के बाद.. ग़म अभी-अभी,
छेड़े इसे कैसे कोई? और कौन जगाये??'
'बरसात में भीगे हैं.. मेरे लफ्ज़ बेमिसाल,
अब किस तरह तहरीर, किताबों में समाये??'
'आवारगी के साथ.. बड़ी उम्र गुज़ारी,
लिपटे कभी ज़मीं से.. कभी दरिया में नहाये.'
'चुपके से किसी ने, सदायें दी हैं प्यार की,
देखो क़ि अबक़ि दिल को मेरे.. कौन दुखाये??'
'वो रहगुज़र..वो फ़ासले.. वो आशियाँ..वो ख़त !!!
हमने तेरी उम्मीद में.. हर ख्वाब ज़लाये.'
'मैं हाथों में अंगार लिए.. सोच रहा हूँ !!!
कोई मुझे बर्फ़ की.. तासीर बताये.'
'आए ख़याल ज़ेहन में.. बनते गये ग़ज़ल,
'शायर' ने इस तरह से, हुनर आज दिखाये...!!!"
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